24 November, 2013

प्राण तत्व जब एक, दिखें क्यूँ भेद भयंकर-


शुभ बुद्धि विवेक मिले जब से, सब से खुद को मनु श्रेष्ठ कहे  ।

पर यौनि अनेक बसे धरती, शुभ-नीति सदा मजबूत गहे । 

कुछ जीव दिखे अति श्रेष्ठ हमें, अनुशासन में नित बीस रहे । 

जिनकी अति उच्च समाजिकता, पर मानव के उतपात सहे ॥  



कुंडलियां 

(१)

मानव समता पर लगे, प्रश्न चिन्ह सौ नित्य ।
 रंग धर्म क्षेत्रीयता, पद मद के दुष्कृत्य । 

पद मद के दुष्कृत्य , श्रमिक रानी में अंतर । 
प्राण तत्व जब एक, दिखें क्यूँ भेद भयंकर ।

रविकर चींटी देख, कभी ना बनती दानव । 
रखे परस्पर ख्याल, सीख ले इनसे मानव ॥ 


(२)

बड़ा स्वार्थी है मनुज, शक्कर खोपर चूर  । 
चींटी खातिर डालता, शनि देते जब घूर । 

शनि देते जब घूर, नहीं तो लक्ष्मण रेखा । 
मानव कितना क्रूर, कहीं ना रविकर देखा । 

कर्म-योगिनी श्रेष्ठ,  नीतिगत बंधन तगड़ा । 
रखें चीटियां धैर्य,  व्यर्थ ना जाँय हड़बड़ा ॥ 

(3)

जोशीली यह चींटियाँ, दी सद्मार्ग दिखाय। 
रहें हमेशा एकजुट, कर्मयोग ही भाय । 

कर्मयोग ही भाय, एक सा सुख-दुःख भोगा । 
कठिन कार्य संपन्न, एक जुट होना होगा । 

होय लोक-कल्याण, नहीं हो कोशिश ढीली । 
मिले हाथ से हाथ, होय कोशिश जोशीली ॥ 

मदिरा सवैया (  भगण  X 7 + S )
पञ्च पिपीलक पिप्पल पेड़ पहाड़ समान उठावत है । 
जीत लिया जब देश नया, तरु से दुइ दीप मिलावत हैं । 
दुर्गम मार्ग रहा बरसों कल सों शुभ राह बनावत है। 
रानि निगाह रखे उन पे जिनके हित काम करावत है । 


दुर्मिळ सवैया (सगण x 8)

इस ओर गरीब-फ़क़ीर बसे, उस ओर अमीर-रईस जमा। 
जनतंतर जंतर-मंतर से, कुछ अंतर भेद न छेद कमा । 
सरकार रही सरकाय समा, जन नायक मस्त स्वमेव रमा । 
इन चींटिन सा सदुपाय करो, करिये उनको मत आज क्षमा |

5 comments:

  1. बहुत बढ़िया.....
    आख़री दुर्मिल सवैया थोडा समझ नहीं आया :-(
    सादर
    अनु

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    1. आदरेया
      चित्र में दो द्वीप दिखाई दे रहे हैं-
      गरीब चींटियाँ दूसरी तरफ आक्रमण कर रही हैं-
      सादर

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  2. वाह !!!
    बहुत सुंदर रचना
    बधाई ------

    आग्रह है--
    आशाओं की डिभरी ----------

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  3. रविकर जी आपके छन्‍द-काव्‍य, सवैया, कुंडलियां इत्‍यादि बहुत प्रासंगिक हैं। इस बार चींटी के बहाने आपने एकजुट होकर मानव कल्‍याण की दिशा में अग्रसर होने की जिस बात की ओर इंगित किया है, वह शिरोधार्य है।

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  4. आदरणीय सर , बहुत सुन्दर कृति , धन्यवाद
    ॥ जै श्री हरि: ॥

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