(1)
रोया पाकिस्तान फिर, किन्तु हँसा इस्लाम।
कभी शिया मस्जिद उड़ी, मंदिर कभी तमाम।
मंदिर कभी तमाम, चर्च गुरुद्वारे उड़ते ।
चले तोप तलवार, सैकड़ों किस्से जुड़ते।
धरती वह अभिशप्त, क़त्ल-गारद की गोया।
सदा बहेगा रक्त, जहाँ था मानव रोया।
(2)
बोये झाड़ अफीम के, कहाँ उगे फिर नीम ।
खतरे नीम हकीम के, समझो राम-रहीम।
खतरे नीम हकीम के, समझो राम-रहीम।
समझो राम-रहीम, नशे का धंधा चोखा।
फिदायीन तैयार, नहीं देंते ये धोखा।
उन्हें हूर की फ़िक्र, जमाना चाहे रोये।
कभी करें ना जिक्र, कहाँ क्यों कैसे बोये।।
(3)
पेशावर फिर से मरा, उठे कई ताबूत।
बड़ा बुरा आतंक यह, मरते पाकी पूत।
बड़ा बुरा आतंक यह, मरते पाकी पूत।
मरते पाकी पूत, अगर भारत पर चढ़ते।
कहते झूठ सुबूत, कहानी झूठी गढ़ते।
अपनी करनी भोग, भोगना पड़े हमेशा।
वह अच्छा आतंक, बुरा उनका यह पेशा।।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (22.01.2016) को "अन्तर्जाल का सात साल का सफर" (चर्चा अंक-2229)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteवर्तमान परिपेक्ष्य में खरी उतरती हुई सार्थक कुण्डलियाँ।
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