रोपी गयी नव-खेत में जब धान की बेरन बड़ी।
लल्ली लगा ले आलता लावा उछाली चल पड़ी।।
अलमारियों में पुस्तकें सलवार कुरते छोड़ के।
गुड़िया खिलौने छोड़ के चुनरी खड़ी है ओढ़ के।
रो के कहारों से कहा रोके रहो डोली यहाँ।
घर द्वार भाई माँ पिता को छोड़कर जाऊँ कहाँ।
लख अश्रुपूरित नैन से बारातियों की हड़बड़ी।
लल्ली लगा ले आलता लावा उछाली चल पड़ी।।
हरदम सुरक्षित मैं रही सानिध्य में परिवार के।
घूमी अकेले कब कहीं मैं वस्त्र गहने धार के।
क्यूँ छोड़ने आई सखी, निष्ठुर हुआ परिवार भी।
अन्जान पथ पर भेजते अब छूटता घर द्वार भी।।
रोती गले मिलती रही, ठहरी नही लेकिन घड़ी।
लल्ली लगा ले आलता लावा उछाली चल पड़ी।।
आओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।
शायद कमी कुछ रह गयी हम बेटियों के प्यार में।
तुलसी नमन केला नमन बटवृक्ष अमराई नमन।
दे दो विदा लेना बुला हो शीघ्र अपना आगमन।।
आगे बढ़ी फिर याद करती जोड़ती इक इक कड़ी।
लल्ली लगा ले आलता लावा उछाली चल पड़ी।।
Superb
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-12-2016) को "रहने दो मन को फूल सा... " (चर्चा अंक-2558) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
so nice
ReplyDeleteआओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।.....।।
ReplyDeleteवाह!!!