कर रविकर अहसास तो, बने अजनबी खास।
अपने भी हों अजनबी, मरे अगर अहसास।।
मैया तो पाला करे, रविकर श्रवण कुमार।
पाला बदले किन्तु सुत, बदले जब सरकार।।
मैया है मेरी हँसी, बापू की मुस्कान।
छुटकी की शैतानियाँ, रविकर कुल सम्मान।।
साहस तो देती मगर, छीन रही पहचान।
बाहर निकलो भीड़ से, रहो न भेड़ समान।।
आँख मूँद कर कौन कब, सका मुसीबत टाल।
उल्टा आँखे खोल दे, रविकर आपद्काल।।
दिखे परस्पर आजकल, जलते तपते लोग।
जले-तपे धरती तभी, लू-लपटें ले भोग।।
करे कदर कद देख के, जहाँ मूर्ख इन्सान।
निरंकार प्रभु को भला, ले कैसे पहचान।।
दुर्जन पर विश्वास कर, पाई थोड़ी पीर।
सज्जन पर शंका किया, पूरा दुखा शरीर।।
ऊँट समस्या सम खड़े, रविकर बीच बजार।
खुद बैठे, बैठा दिए, फिर भी बाकी चार।।
अहमक तो दीमक सरिस, गया किताबें चाट।
अहम् बढ़ा पर अक्ल ने, खोले नही कपाट।।
रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।
भूमि उर्वरा वायु जल, पौध-पुत्र अनुकूल।
किन्तु छाँह में ये कभी, सके नहीं फल-फूल।।
भेड़-चाल जनता चले, खले मुफ्त की मार।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उनका ऊन उतार।।
रहे बाँटते आज तक, जो रविकर की पीर।
चलो खींच लें साथ में, यादगार तस्वीर।।
नीयत रखो सुथार की, करो भूल स्वीकार।
इन भूलों से शर्तिया, होगा बेड़ापार।।
रविकर रिश्तों के लिए, नित्य निकालो वक्त।।
इन रिश्तों से अन्यथा, कर दे वक्त विरक्त।।
धनी पकड़ ले बिस्तरा, लगे घूरने गिद्ध।
लें वकील को वे बुला, वैद्य प्रवेश निषिद्ध।।
कण कण में जब प्रभु बसे, क्यूँ तू मंदिर जाय।
पवन धूप में भी चले, पर छाया में भाय।।
सुख दुख निन्दा अन्न यदि, रविकर लिया पचाय।
पाप निराशा शत्रुता, चर्बी से बच जाय।।
अपनी गलती पर बने, रविकर अगर वकील।
जज बन के खारिज़ करे, पत्नी सभी दलील।।
प्रीति-पीर पर्वत सरिस, हिमनद सा नासूर।
रविकर की संजीवनी, रही दूर से घूर।।
जीवन-नौका तैरती, भव-सागर विस्तार।
लोभ-मोह सम द्वीप दस, रोक रहे पतवार।।
कुटिया में कोदौं पके, ले मुस्टंडे घेर।
महलों में कुत्ते फिरें, कहें उन्हें वे शेर।।
किया बुढ़ापे के लिए, जो लाठी तैयार।
मौका पाते ही गयी, वो तो सागर पार।
रविकर पल्ला झाड़ दे, देख दीन मेह`मान।
लेकिन पल्ला खोल दे, यदि आये धनवान।
वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।
अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा में गये, रविकर के दिन चार।।
दीन कुटुम्बी से लिया, रविकर पल्ला झाड़।
खोले पल्ला गैर हित, गाँठ-गिरह को ताड़।।
रविकर की पाचन क्रिया, सचमुच बड़ी विचित्र।
रुपिया पैसा ले पचा, परेशान हैं मित्र।।😁😁
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-05-2017) को
ReplyDeleteमैया तो पाला करे, रविकर श्रवण कुमार; चर्चामंच 2635
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!!!
ReplyDeleteआपने भी अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया.....
लाजवाब....
शत शत नमन...
वाह बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteदिनांक 24/05/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
वाह!लाजवाब दोहे
ReplyDeleteकुटिया में कोदौं पके, ले मुस्टंडे घेर।
ReplyDeleteमहलों में कुत्ते फिरें, कहें उन्हें वे शेर।।
लाज़वाब रचना आदरणीय ,हृदय से आभार। "एकलव्य"