विधाता छंद
नहीं पीता कभी पानी, रियाया को पिलाता है।
नकारा चाय भी अफसर, नकारा जान खाता है।
नहीं वह चाय का प्यासा, कभी पानी नहीं मांगे
मगर बिन चाय-पानी के, नहीं फाइल बढ़ाता है।।
चुनावी हो अगर मौसम बड़े वादे किये जाते।
कई पूरे किये जाते कई बिसरा दिए जाते।
किया था भेड़ से वादा मिलेगा मुफ्त में कम्बल
कतर के ऊन भेड़ो का अभी नेता लिये जाते।।
फटे बादल चढ़ी नदियाँ बहे पुल जलजला आया।
कटे सम्पर्क गाँवों का बटे राहत नहीं पाया।
अमीरों की रसोई में पकौड़े तल रहे नौकर।
किसानों ने मगर बरसात में केवल जहर खाया ।।
उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।
समाया सोच में ही पाप, जो संताप देता है ।
रहा निष्पाप मानव-तन मगर खुद दोष लेता है।
किया तन शुद्ध पानी में कई डुबकी लगा कर के |
मगर यह सोच कैसे शुद्ध हो गंगा नहा कर के ||
वाह बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteचुनावी हो अगर मौसम बड़े वादे किये जाते।
ReplyDeleteकई पूरे किये जाते कई बिसरा दिए जाते।
किया था भेड़ से वादा मिलेगा मुफ्त में कम्बल
कतर के ऊन भेड़ो का अभी नेता लिये जाते।।
बहुत ख़ूब !आदरणीय ,सुन्दर व प्रभावी रचना आभार। "एकलव्य"
वाह!!!!
ReplyDeleteभ्रष्टाचार से लेकर चुनावी फेर
मौसम की मार से लेकर सियासत हो या कृषकोंं की मुसीबत.... आपकी लेखनी से सब एक बार में ही चित्त.....कमाल की रचना...
यही तो मुश्किल है.
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