अरबपति पुत्र की माता, बनी कंकाल सड़ गलकर।
रहे रेमंड का मालिक, किराये की कुटी लेकर।
कलेक्टर खुदकुशी करता, कलह जीना करे दूभर।
हितैषी खोज तू, है व्यर्थ रुतबा शक्ति धन रविकर।
चौबीस कैरेट स्वर्ण का पति को पतीला दी बना।
धो के तपा के पीट के वह देह देती सनसना।
हर बार मेहनत क्यूँ करे फिर सात जन्मों के लिए
अर्जी लगा प्रभु पास वह करने लगी नित प्रार्थना।।
कोई कहाँ सम्पूर्ण है, स्वीकार रिश्ते कीजिए।
हर एक रिश्ते को सदा सम्मान समुचित दीजिए।
संसार में तो मात्र जूतों की बनें जोड़ी सही।
जोड़ी बनाई ईश ने तो स्वाद मीठा लीजिए।।
Satya hai. Aaj hitaishiee ki sabse badi jarurat hai. Sundar Muktak
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-08-2017) को "खारिज तीन तलाक" (चर्चा अंक 2705) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सटीक।
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