पुरखे जलाये थे कभी।
दफना रहे लेकिन अभी।।
हमलावरों से खून के
रिश्ते बना लेते सभी
जब आँख पर पट्टी बँधी
उत्पात करते भक्त भी।
न्यायालयों के फैसले
देखे बहाते रक्त भी।
ले आस्मां सिर पर उठा
आधे अधूरे शख़्स भी।
सच्चा रहा सौदा मगर
ठगता रहा वह संत भी।।
विधाता छंद
शहर में आग भड़काई जहर से जीभ बुझवाई।
कहर ढाया गरीबों पर, सड़क पर भीड़ उफनाई।
दहर डेरा अंधेरा कर, उजाले का सपन बेचे।
चतुर-चालाक ने कितने भगत की जान है खाई।।
वाह!!!
ReplyDeleteआदरणीय सर !लाजवाब समसामयिक रचना...
परिस्थिति पर मलहम लगाते छंद
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