मिली मदमस्त महबूबा मुझे मंजिल मिली मेरी।
दगा फिर जिन्दगी देती, खुदारा आज मुँहफेरी।
कभी भी दो घरी कोई नहीं यूँ पास में बैठा
सुबह से ही मगर घरपर, बड़ी सी भीड़ है घेरी।
अभी तक तो किसी ने भी नहीं कोई दिया तोह्फा।
मगर अब फूल माला की लगाई पास में ढेरी।
तरसते हाथ थे मेरे किसी ने भी नहीं थामा
बदलते लोग कंधे यूँ कहीं हो जाय ना देरी।
कदम दो चार भी कोई नही था साथ में चलता
मगर अब काफिला पीछे, हुई रविकर कृपा तेरी।।
दगा फिर जिन्दगी देती, खुदारा आज मुँहफेरी।
कभी भी दो घरी कोई नहीं यूँ पास में बैठा
सुबह से ही मगर घरपर, बड़ी सी भीड़ है घेरी।
अभी तक तो किसी ने भी नहीं कोई दिया तोह्फा।
मगर अब फूल माला की लगाई पास में ढेरी।
तरसते हाथ थे मेरे किसी ने भी नहीं थामा
बदलते लोग कंधे यूँ कहीं हो जाय ना देरी।
कदम दो चार भी कोई नही था साथ में चलता
मगर अब काफिला पीछे, हुई रविकर कृपा तेरी।।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-09-2017) को सुबह से ही मगर घरपर, बड़ी सी भीड़ है घेरी-चर्चामंच 2732 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह क्या फलसफा है ।
ReplyDeleteकडवी पर यथार्थ ... जिंदगी के फलसफे को लिख दिया इन शेरो में ... गज़ब ...
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