खलिश बढ़ती रही घर में, मगर कुछ बोल ना पाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।
रजाई ओढ़कर सोता, मगर ए सी चलाता है।
नहाकर पूत गीजर को, खुला ही छोड़ जाता है।
सतत् चलता रहे टी वी, जले दिन रात बिजली भी
नहीं कोई सुने घर में, बढ़ा बिल जान खाता है।
बढ़ा जो रेट बिजली का, मियां तब खूब झल्लाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।।
चला फर्लाँग भर बाइक सुबह नित दूध लाये वो।
हमेशा लांग-ड्राइव पर प्रिया के साथ जाये वो।
जरा बाजार जाना तो, फटाफट फिटफिटी लेता
जले चूल्हा बिना मतलब, बड़ा भेजा पकाये वो।
बढ़ा जो दाम ईंधन का, मिनिस्टर पर भड़क जाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।।
बड़े से मॉल में जाकर, हमेशा जेब कटवाये।
मगर फुटपाथ वालों से बहस वह रोज कर आये।
टमाटर दाल मंहगाई हमेशा किंतु रोना है
नहीं दरमाह दाई का कभी भी वह बढ़ा पाये।
बढ़ा दो फीसदी डी ए मगर हड़ताल करवाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।
रजाई ओढ़कर सोता, मगर ए सी चलाता है।
नहाकर पूत गीजर को, खुला ही छोड़ जाता है।
सतत् चलता रहे टी वी, जले दिन रात बिजली भी
नहीं कोई सुने घर में, बढ़ा बिल जान खाता है।
बढ़ा जो रेट बिजली का, मियां तब खूब झल्लाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।।
चला फर्लाँग भर बाइक सुबह नित दूध लाये वो।
हमेशा लांग-ड्राइव पर प्रिया के साथ जाये वो।
जरा बाजार जाना तो, फटाफट फिटफिटी लेता
जले चूल्हा बिना मतलब, बड़ा भेजा पकाये वो।
बढ़ा जो दाम ईंधन का, मिनिस्टर पर भड़क जाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।।
बड़े से मॉल में जाकर, हमेशा जेब कटवाये।
मगर फुटपाथ वालों से बहस वह रोज कर आये।
टमाटर दाल मंहगाई हमेशा किंतु रोना है
नहीं दरमाह दाई का कभी भी वह बढ़ा पाये।
बढ़ा दो फीसदी डी ए मगर हड़ताल करवाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।।
आपका लेखन सामाजिक विषयों पर हमेशा उत्कृष्ट श्रेणी का रहता है।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत सटीक.....
लाजवाब...
आपकी लिखी रचना सोमवार 8 जनवरी 2018 के 906 वें अंक के लिए साझा की गयी है
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
लाजवाब
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनायें .
आज की सच्ची तस्वीर
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