15 October, 2017

भावानुवाद (पाब्लो नेरुदा की नोबल प्राइज प्राप्त कविता)

जो पुस्तकें पढ़ता नहीं, 
जो पर्यटन करता नहीं, 
अपमान जो प्रतिदिन सहा, 
जो स्वाभिमानी ना रहा,
जो भी अनिश्चय से डरे।
तिल तिल मरे, आहें भरे।।
जो जन नहीं देते मदद , 
जो जन नहीं लेते मदद,
संगीत जो सुनता नहीं, 
रिश्ते कभी बुनता नहीं, 
जो पर-प्रशंसा न करे।
तिल तिल मरे, आहें भरे।।
रोमांच से मुख मोड़ते।
आदत कभी ना छोड़ते।
जो लीक से हटते नहीं।
हिम्मत जुटा डटते नहीं।
वह आपदा कैसे हरे।
तिल तिल मरे आहें भरे।।
जो स्वप्न तो देखे बड़े।
पर हाथ कर देते खड़े।
नाखुश दिखे जो काम से।
चिंतित दिखे परिणाम से
आवेग रखकर वह परे।
तिल तिल मरे आहें भरे।।

तिल तिल मरा, मरता रहा।।
संतुष्ट वह बिल्कुल नहीं, निज काम से, परिणाम से ।
नित देखता सपने बड़े, लेकिन बड़े आराम से।
उसको अनिश्चित हेतु, निश्चित छोड़ना मुश्किल लगा।
तिल तिल मरा मरता रहा, रविकर गया वह काम से।।
आदत कभी छोड़े नहीं, रोमांच से मुँह मोड़ ले।
चलता रहे वह लीक पर, रिश्ते कभी भी तोड़ ले।
लेता नहीं अहसान वह देता मदद बिल्कुल नहीं।
तिल तिल मरा मरता रहा, वह आदमी सिर फोड़ ले।।
जो स्वाभिमानी ना रहा, अपमान भी हरदिन सहा।
जो पर-प्रशंसा में हमेशा मौन धारण कर रहा।
जो पुस्तकें पढ़ता नहीं, जो पर्यटन करता नहीं
तिल तिल मरा, मरता रहा, किसने उसे जिन्दा कहा।।

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