दरमाह दे दरबान को जितनी रकम होटल बड़ा।
परिवार सह इक लंच में उतनी रकम दूँ मैं उड़ा।
हाहा हहा क्या बात है। उत्पात है।
तौले करेला सेब आलू शॉप पर छोटू खड़ा।
वह जोड़ना जाने नहीं, यह जानकर मैं हँस पड़ा।
हाहा हहा क्या बात है। औकात है।।
जब शार्ट्स ब्रांडेड फाड़कर घूमे फिरे हीरोइने।
तो क्यों गरीबी बेवजह अंगांग लगती ढापने।
हाहा हहा क्या बात है। क्या गात है।।
जब जात पर जब पात पर जब धर्म पर जनगण बँटा।
तब दाँव अपना ताड़के नेता बना रविकर डटा।
हाहा हहा क्या बात है। हालात् है।।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-12-2017) को दरमाह दे दरबान को जितनी रकम होटल बड़ा; चर्चामंच 2808 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut khoob
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार ११ दिसंबर २०१७ को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
ReplyDeleteवाह!! बहुत खूब।
ReplyDeletebahut sunder
ReplyDeleteहाँ! हाँ! क्या बात है
ReplyDeleteशब्द शब्द लताड़ रहे न जाने किसको किसको
सोच बैठे कहीं हमको कह के तो नहीं खिसको
वाह वाह क्या बात है ! लगी कसके चमात है !! सविता ..
मन के शब्द फूटे
दिल आपका न टूटे
छंद-बंद से दूर हैं हम
भाव बस शब्दों में छूटे |
वाह !! आदरणीय -- बहुत खूब लेखन | होठों पर मुस्कराहट बिखेरने के साथ मन में करुण चित्र सजीव कर देती है | सादर ---
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