रखे व्यर्थ ही भींच के, मुट्ठी भाग्य लकीर।
कर ले दो दो हाथ तो, बदल जाय तकदीर।।
प्रेम परम उपहार है, प्रेम परम सम्मान।
रविकर खुश्बू सा बिखर, निखरो फूल समान।।
फेहरिस्त तकलीफ की, जग में जहाँ असीम।
गिनती की जो दो मिली, व्याकुल राम-रहीम।।
दिया कहाँ परिचय दिया, परिचय दिया उजास।
कर्मशील का कर्म ही, दे परिचय विन्दास।।
नहीं मूर्ख बुजदिल नहीं, हुनरमंद वह व्यक्ति।
निभा रहा सम्बन्ध जो, बिन विरक्ति आसक्ति।।
कभी नहीं रविकर हुआ, पुष्ट-दुष्ट संतुष्ट।
अपने, अपने-आप से, रहे अनवरत रुष्ट।।
तन चमके बरतन सरिस, तभी बढ़े आसक्ति।
कौन भला मन को पढ़े, रविकर चालू व्यक्ति।।
दिया कहाँ परिचय दिया, परिचय दिया उजास।
ReplyDeleteकर्मशील का कर्म ही, दे परिचय विन्दास।।
बहुत खूब!
बहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
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