नौ महिने रख कोख में, सात घुमाई गोद,
अन्नाशन संस्कार का, मनता मंगल-मोद ||१||
हिजड़े न समझे मज़बूरी |
बनती है उनकी दस्तूरी ||
लाव मदरसे के लिए, पक्का दस्तावेज,
अनुमंडल आफिस गया, उत्थे खाली मेज ||२||
बाबू की देखी मगरूरी |
बनती है उनकी दस्तूरी ||
सत्यापन नौकरी का, आया थाना बीच,
एक बुलौवा भेज के, लिया आठ सौ खींच ||३||
महकी क्यूँ मृग की कस्तूरी |
बनती है उनकी दस्तूरी ||
चतुर नजूमी खोलता, भावी जीवन-जाल |
जर-जमीन जोरू मिले, काटे जमकर माल ||४||
बात बोलते बड़ी जरुरी |
बनती है उनकी दस्तूरी ||
सयापन नौकर का, आया थाना बीच, एक बुलौवा भेज के, िलया आठ सौ खींच ||३|
ReplyDeleteVyawastha ka wastavik chitran kiya hai aapne.
Badhai.
सुन्दर सटीक रचना....
ReplyDeleteबात बोलते बड़ी जरुरी |
ReplyDeleteबनती है उनकी दस्तूरी ||
सही कहा रविकर जी ये तो आज के युग में सभी की बनती है
सुन्दर कटाक्ष बधाई
दस्तूरी की मजबूरी खूब रही,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर्।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर्।
ReplyDeleteसुन्दर सटीक रचना,बहुत सुन्दर
ReplyDeleteयथार्थ का काव्यमय सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDelete'द्स्तुरी' शब्द के इर्द गिर्द बुनी गयी अभिनव प्रस्तुति| ये शब्द हिंदुस्तान में सब जगह नहीं बोला जाता| इस का अर्थ होता है 'दलाली उर्फ कमीशन'|
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो
चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बहुह खूब!......
ReplyDelete