रमिया का एक दिन.... (महिला दिवस के बहाने)
रमिया खटती रात-दिन, किन्तु मियां अभिशाप।
तन-मन देती वह जला, रहा निकम्मा ताप ।
रहा निकम्मा ताप, बाप बनता ही रहता ।
तीन ढाक के पात, खुदा की नेमत कहता |
पीता दारू रोज, निकाले हर दिन कमियां |
सहती जाए बोझ, रहे चुप लेकिन रमिया ||
तन-मन देती वह जला, रहा निकम्मा ताप ।
रहा निकम्मा ताप, बाप बनता ही रहता ।
तीन ढाक के पात, खुदा की नेमत कहता |
पीता दारू रोज, निकाले हर दिन कमियां |
सहती जाए बोझ, रहे चुप लेकिन रमिया ||
मार्मिक........
ReplyDeleteकटु सत्य भी...
सादर
ऊफ्फ ..
ReplyDeleteबहुत हृदयस्पर्शी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत उम्दा....!
ReplyDeletebahut khoob.यह चिंगारी मज़हब की."
ReplyDeleteगहरे अर्थ और दर्द
ReplyDeletemarmik......
ReplyDeleteकविवर तेरी कुंडली, गहरा जख्म दिखाये
ReplyDeleteआह!आह! ही बोलता, वाह! कही ना जाय।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ,मन जीते जग जीत.
ReplyDeleteमन से आवे काया में भैया, जी हर रोग
मन को मांजो रहो निरोग .
यही हकीकत रमियाओं की है .
dil ko chhune wali rachna
ReplyDelete