हौंसले की लग्गियों ने अनवरत अम्बर छुआ ।
हाथ पर गर हाथ धरते, काम कब आये दुआ ।।
शाम को नैना लड़े, चोट दिल पर यूँ लगी -
बुद्धि लंगड़ी हो गई, इश्क फिर अँधा हुआ ।।
पूजते थे वे समंदर, घाट को चौड़ा करे -
किन्तु लहरों की उपेक्षा, खोद दी खाई कुआँ ।।
कम हुवे अब ट्रेंड-सेटर, इफरात हैं क्विश्चन सेटर-
च्वाइस नहीं दे कर रखी, तो कौन दे उत्तर मुआ ।
क्या गधे को आदमी बनते हुए देखा कभी--
इक छमाही में बदलकर आज यह रविकर हुआ ।।
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आदरणीय विद्वान् पाठक वृन्द -
मुझे गजल कहना सीखना है-
कठिन प्रयास कर रहा हूँ-
कुछ बारीकियां तो बताएं-
कुंडलिया और सवैया भी तो आपने ही सिखाया है-
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भ्रमित कहीं न होय, हमारी प्रिय मृग-नैनी -
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'चित्र से काव्य तक' प्रतियोगिता अंक -१९
कुंडलियाँ
चश्में चौदह चक्षु चढ़, चटचेतक चमकार ।
रेगिस्तानी रेणुका, मरीचिका व्यवहार ।
मरीचिका व्यवहार, मरुत चढ़ चौदह तल्ले ।
मृग छल-छल जल देख, पड़े पर छल ही पल्ले ।
मरुद्वेग खा जाय, स्वत: हों अन्तिम रस्में ।
फँस जाए इन्सान, ढूँढ़ नहिं पाए चश्में ।।
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मरुकांतर में जिन्दगी, लगती बड़ी दुरूह ।
लेकिन जैविक विविधता, पलें अनगिनत जूह ।
पलें अनगिनत जूह, रूह रविकर की काँपे।
पादप-जंतु अनेक, परिस्थिति बढ़िया भाँपे ।
अनुकूलन में दक्ष, मिटा लेते कुल आँतर ।
उच्च-ताप दिन सहे, रात शीतल मरुकांतर ।।
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रेतीले टीले टले, रहे बदलते ठौर।
मरुद्वेग भक्षण करे, यही दुष्ट सिरमौर ।
यही दुष्ट सिरमौर, तिगनिया नाच नचाए ।
बना जीव को कौर, अंश हर एक पचाए ।
ये ही मृग मारीच, जिन्दगी बच के जीले ।
देंगे गर्दन रेत, दुष्ट बैठे रेती ले ।
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मृगनैनी नहिं सोहती, मृग-तृष्णा से क्षुब्ध ।
विषम-परिस्थित सम करें, भागें नहीं प्रबुद्ध ।
भागें नहीं प्रबुद्ध, शुद्ध अन्तर-मन कर ले ।
प्रगति होय अवरुद्ध, क्रुद्धता बुद्धि हर ले ।
रहिये नित चैतन्य, निगाहें रखिये पैनी ।
भ्रमित कहीं न होय, हमारी प्रिय मृग-नैनी ।।
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चश्में=ऐनक / झरना
चटचेतक = इंद्रजाल
रेणुका=रेत कण / बालू
मरुद्वेग=वायु का वेग / एक दैत्य का नाम
मरुकांतर=रेतीला भू-भाग
जूह =एक जाति के अनेक जीवों का समूह
आँतर = अंतर
काका हाथरसी की रचना याद आ रही है..
ReplyDeleteइधर भी गधे हैं,उधर भी गधे हैं,
जिधर देखता हूं गधे ही गधे हैं।
गधे हस रहे हैं, आदमी रो रहा है
हिंदोस्तां में ये क्या हो रहा है ।
हाहाहहाहा