रविकर जी, मैंने आपकी और अरुण जी जैसी आशु कविताई की वर्तमान में कभी कल्पना भी नहीं की। आप और अरुण जी वर्तमान साहित्य जगत के सिरमौर हैं। कभी मन में एक कसक थी कि वर्तमान में सूर-तुलसी-केशव जैसे कवि क्यों नहीं होते। मन में ये सुकून है कि अब उसकी भरपायी हो गयी है। अरुण निगम जी और आप जिस निष्ठा से साहित्य की सेवा में लगे हैं वह अद्भुत है, सराहनीय है, वन्दनीय है। आप जैसे आदरणीय कविश्रेष्ठ बंधुओं से आशीर्वाद मिले तो जबरन कोशिश से बने कवियों पर माँ शारदा की कृपा होवे। दीपावली की अनंत शुभकामनाओं के साथ------- |
तुलसी हैं शशि सूर रवि, केशव खुद खद्योत ।
रविकर थोथे चने सम, पौध उगी बिन जोत । पौध उगी बिन जोत, घना लगता है बजने । अजब झाड़-झंखाड़, भाव बिन लगे उपजने । उर्वर पद-रज पाय, खाय मन रविकर हुलसी । है रविकर एकांश,शंखपति कविवर तुलसी ।।
शंख=10 000 000 000 000
शंख के स्वर और
थोथे चने के स्वर में जमीं-आस्मां का अंतर है-
उर्वर पद-रज=चरणों की धूल रूपी उर्वरक
बिन जोत=बिना जुताई किये / बिना ज्योति के
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लाल अशर्फी होती काली, कौड़ी कौड़ी हुई दिवाली
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----- ।। शुभ-दीपावली ।। -----
ReplyDeleteआपको भी सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteदीवाली का पर्व ज्योति दे,जीवन में उजियार भरे !
ReplyDeleteकभी अँधेरा असमय आकार, मत खुशियों पर वार करे !!