देह देहरी देहरे, दो, दो दिया जलाय-रविकर
हुक्का-हाकिम हुक्म दे, नहीं पटाखा फोर ।
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हुक्का-हाकिम हुक्म दे, नहीं पटाखा फोर ।
इस कुटीर उद्योग का, रख बारूद बटोर ।
रख बारूद बटोर, इन्हीं से बम्ब बनाना ।
एक शाम इक साथ, प्रदूषण क्यूँ फैलाना ?
मारे कीट-विषाणु, तीर नहिं रविकर तुक्का ।
ताश बैठ के खेल, खींच के दो कश हुक्का ।
दूर पटाखे से रहो, कहते हैं श्रीमान ।
जनरेटर ए सी चले, कर गुडनाइट ऑन ।
कर गुडनाइट ऑन, ताश की गड्डी फेंटे ।
किन्तु एकश: आय, नहीं विष-वर्षा मेंटे ।
गर गंधक तेज़ाब, नहीं सह पाती आँखे ।
रविकर अन्दर बैठ, फोड़ तू दूर पटाखे ।।
संध्या वंदन आरती, हवन धूप लोहबान |
आगम निगम पुराण में, शायद नहीं बखान |
शायद नहीं बखान, परम्परा किन्तु पुरानी |
माखी माछर भाग, नीम पत्ती सुलगानी |
भारी बड़े विषाणु, इन्हें बारूद मारती |
शुरू करें इक साथ, पुन: वंदना आरती ||
डीजल का काला धुंआ, फैक्टरी का जहर |
कल भी था यह केमिकल, आज भी ढाता कहर |
आज भी ढाता कहर, हर पहर हुक्का बीडी |
क्वायल मच्छरमार, यूज करती हर पीढ़ी |
डिटरजेंट, विकिरण, सहे सब पब्लिक पल पल |
बम से पर घबराय, झेलता काला डीजल ||
डेंगू-डेंगा सम जमा, तरह तरह के कीट |
खूब पटाखे दागिए, मार विषाणु घसीट |
मार विषाणु घसीट, एक दिन का यह उपक्रम |
मना एकश: पर्व, दिखा दे दुर्दम दम-ख़म |
लौ में लोलुप-लोप, धुँआ कल्याण करेगा |
सह बारूदी गंध, मिटा दे डेंगू-डेंगा ||
" सभी भक्तजन पूजापाठ में लगे हैं और हमारे कविवर कविताई में लगे हैं।
ReplyDeleteकवि के लिए कविताई ही पूजा है। पत्नी शायद कवि महोदय से परेशान नहीं होतीं।
कवियों को उनकी पत्नियों का साथ मिले तो सच में कविताई संभव न हो पाए. साथ न मिलने पर कविताई संभव हो पाती है। :)
कमेंट लिखने के बावजूद उसे आप तक विलम्ब से पहुँचा इसी कारण से पाया कि मिलने वालों का ताँता तुरंत लग गया।