कुण्डलियाँ छंद
जन्नत बन जाए जहाँ, बसते बाल-बुजुर्ग ।
इनके रहमो-करम से, देह देहरी दुर्ग ।
देह देहरी दुर्ग, सुरक्षित शिशु-अबलायें ।
इनका अनुभव ज्ञान, टाल दे सकल बलाएँ ।
हाथ परस्पर थाम, मान ले रविकर मिन्नत ।
बाल-वृद्ध सुखधाम, बनायें घर को जन्नत।।
इनके रहमो-करम से, देह देहरी दुर्ग ।
देह देहरी दुर्ग, सुरक्षित शिशु-अबलायें ।
इनका अनुभव ज्ञान, टाल दे सकल बलाएँ ।
हाथ परस्पर थाम, मान ले रविकर मिन्नत ।
बाल-वृद्ध सुखधाम, बनायें घर को जन्नत।।
वाह रे बाल-वृद्ध सुखदाम। आज तेरी बहुत कमी खल रही है।
ReplyDeleteक्या बात है रविकर भाई तस्वीर भी बहुत तेज़ बोल रही है :
ReplyDeleteदुश्मनों को भी गले से लगाना नहीं भूले ,
हम अपने बुजुर्गों का ज़माना नहीं भूले .
बाल वृध्द सुखधाम बनाये गर को जन्नत. क्या सटीक बात कही है रविकर जी। चित्र बहुत ही भाया।
ReplyDelete