17 June, 2014

"गूँथ स्वयं को रोज, बनाती माता रोटी"

रोटी सा बेला बदन, अलबेला उत्साह |
हर बेला सिकती रही, कभी न करती आह |

कभी न करती आह, हमेशा भूख मिटाती |
रहती बेपरवाह, आंच से नहिं अकुलाती । 

 कह रविकर कविराय, बात करता नहिं छोटी |
 गूँथ स्वयं को रोज,  बनाती माता रोटी |

9 comments:

  1. माँ का सुंदर वर्णन ।

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  2. वाह बहुत सुन्दर ...गूँथ स्वयं को रोज, बनाती माता रोटी...

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  4. गूँथ स्वयं को रोज, बनाती माता रोटी |
    बहुत सुन्दर

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  5. रोज परिवार के पेट के वास्ते क्या नहीं करती माँ!
    बहुत सुन्दर

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  6. कह रविकर कविराय, बात करता नहिं छोटी |
    गूँथ स्वयं को रोज, बनाती माता रोटी |वाह रविकर भाई क्या बात है।

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  7. कभी न करती आह, हमेशा भूख मिटाती |
    रहती बेपरवाह, आंच से नहिं अकुलाती ।
    छोटी रचना बड़ी बात ..माँ स्नेह से जो भी छू ले परस
    बन जाए
    जय श्री राधे
    भ्रमर ५

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  8. शुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का कैसे हो भाई साहब (रविकर भाई ,मैं यहां अपलैंड व्यू ,कैण्टन ,मिशिगन ,में हूँ नवंबर मध्य तक .

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