12 October, 2014

बाल-कविता; कहते मित्र किताबी-कीड़ा

पहले तो आती थी आया । 
कितना बोझिल समय बिताया ।। 

रहता हूँ मैं आज अकेला |
लैप-टॉप पे खेलूं  खेला |। 

सब-वे-सफरर फ्रूट कटर है |
हिल क्लाइम्बिंग पे जिगर निडर है |

पिज्जा बर्गर हरदम खाऊँ  |
धक्का-मुक्की सह न पाऊँ  |

मित्र खेलते रोज कबड्डी |
किन्तु चटकती मेरी हड्डी ॥ 

कहते मित्र किताबी-कीड़ा |
ताने मारें देते पीड़ा |

चाहूँ मैं भी बाहर जाना । 
पापा करते किन्तु बहाना । 

मम्मी पापा जब भी आते  |
गिफ्ट थमाते मन बहलाते ॥  |

मन मसोस कर मैं रह जाता |
तमसो ज्योतिर्गमय चिढ़ाता ||





9 comments:

  1. वाह बहुत खूब बालमन की रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

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  2. मन मसोस कर मैं रह जाता |
    तमसो ज्योतिर्गमय चिढ़ाता ||

    वाह।

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  3. व्यंग्य विनोद और बच्चों का अकेलापन सभी मुखरित हैं इस अर्थ गर्भित रचना में .

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  4. सुंदर एवं संदेशप्रद बाल कविता ... आभार।

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  5. बाल मन में हो रहे हलचल को आपने बहुत दुन्दर शब्दरूप दिया !
    खुदा है कहाँ ?
    कार्ला की गुफाएं और अशोक स्तम्भ

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  6. आज के अधिकतर बच्चों की दास्ताँ लिख दी ...
    अच्छा व्यंग ....

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  7. यही हो रहा है बच्चों के साथ - और लोग अपने-अपने में मगन हैं ,आपने सच कह दिया !

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