13 March, 2016

बढ़ती जाए उम्र, समझ लेकिन ना आई-

 खाई पूरे आठ सौ, महज एक सौ और।
होय सहज हज का सफर, लेकिन बदले दौर।

लेकिन बदले दौर, बिलौटा बड़ा निकम्मा।
कैसे हो सिरमौर, सोचती रहती अम्मा।

बढ़ती जाए उम्र, समझ लेकिन ना आई।
चूहे मुँह का कौर, वहाँ भी मुँह की खाई।।

2 comments:

  1. बढ़ती जाए उम्र, समझ लेकिन ना आई।
    चूहे मुँह का कौर, वहाँ भी मुँह की खाई।। बहुत सही ...

    सच कुछ लोग होते ही ऐसे हैं की उनकी अक्ल दाढ़ जिंदगी में कभी आती ही नहीं ..

    ReplyDelete