भाग 1
पाठ 1
मात्रा गणना: (जितना मैं समझा)
बिना स्वरों के कोई व्यंजन, कभी नहीं होता उच्चारित।
मात्राओं की गणना करना, आरोपित स्वर पर आधारित।
सूक्ष्म दृष्टि डालो व्यंजन पर, स्वर लघु है या दीर्घ बताओ।
तदनुसार व्यंजन की मात्रा, लघु या दीर्घ गिनो गिनवाओ।।
एक वर्ण का बहुत ध्यान से, करो शुद्ध उच्चारण रविकर.
करो आकलन लगे समय का, समझो हृस्व, दीर्घ का अंतर.
रहता मात्रा भार पूर्ववत, अनुस्वार पर ध्यान न देना.
लेकिन अनुनासिक, विसर्ग यदि, व्यंजन की मात्रा दो लेना.
हो प्रयुक्ति के बाद काव्य में, मात्राओं की गणना रविकर.
यदि उच्चारण दोष हुआ तो, गड़बड़ होती गणना अक्सर.
पढ़ा स्नान अस्नान, सनान यदि , तो मात्रा शर्तिया बढ़ेगी.
संसकार संस्कार आतमा, कविता की आत्मा तड़पेगी..
1) लघु-स्वरों अ, इ, उ, ऋ की मात्रा 1 गिनते हैं, और लघु (ल) लिखते हैं। दीर्घ-स्वरों आ, ई, ऊ, ए,ऐ,ओ,औ की मात्रा 2 गिनते हैं और गुरु (गा) कहते हैं।
व्यंजन+अकार की मात्रा 1 ही होती है। व्यंजन में ह्रस्व इ, उ, ऋ की मात्रा लगने पर भी उसका मात्रा भार 1 ही रहता है एवं व्यंजन में दीर्घ स्वर आ,ई,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ की मात्रा लगने पर उसका मात्राभार 2 हो जाता है।
2 ) किसी भी वर्ण में अनुनासिक लगने से मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है।
लघु वर्ण के ऊपर अनुस्वार या विसर्ग लगने से उसका मात्राभार 2 हो जाता है।
शेष-विशेष बारीकियाँ उदाहरण से समझिए
नम्र = 21, सत्य = 21, विख्यात = 221
हास्य = 21, आत्मा = 22, सौम्या = 22, शाश्वत = 211, भास्कर = 211,
अंतर समझिए
हस 2 हँस 2 हंस २+१=३
कंत ३ कांत भी ३ मात्रिक
प्रात 3 मात्रा प्रातः 4 मात्रा
घन 2 श्याम 3 घनश्याम 5
ही मात्रा मानी जाएगी क्योंकि यह सामासिक शब्द घन + श्याम जैसा ही उच्चारित किया जाता है.
उप 2 न्यास 3 परन्तु उपन्यास 6, क्योंकि उपन्यास में न् का दुहराव आवश्यक है अन्यथा उपन्यास को उप-न्यास पढ़ना होगा जो कि गलत है
स्वागतम् ५ सुस्वागतम ७
ध्यातव्य: काव्य में प्रयुक्ति के बाद उच्चारणगत मात्राभार पर आधारित होती है मात्रा गणना।
कृति २ प्रकृति ३ अनुकृति ४ *ऋ की मात्रा* लगने से कृ लघु ही रहता है
क्रम २ विक्रम ४
अर्ध अक्षर यदि प्रारंभ मे आयेगा तो नही गिना जायेगा परन्तु बीच मे आने पर सशर्त गिना जायेगा।
कत्ल 2+1
कतल 1+2
आत्मा 4 *दीर्घ अक्षर के बाद आने वाला अर्ध अक्षर नहीं गिना जाता।*
दोहे की कल - व्यवस्था प्रायः
332+ 212 (विषम चरण)/422+3 (सम चरण)
या 44+212 /332+3 होती है.
विषम चरण में आगे आने के कारण संस्कार को संस 3 कार 3 अर्थात 6 गिनना पड़ता है। समचरण के अंत में 2+3 है संस्कार।।
दोहा विशेष (2)
मेह मान मेहमान को, कर स्वागत-सत्कार।
होय न जब तक तर-बतर, रविकर नही नकार।।
कुछ अपवाद
मेह ३ मान ३ / मेहमान ५ / चेहरा ४ / मेहनत ४ / कुम्हला ४ / तुम्हें = 12, तुम्हारा/तुम्हारी/तुम्हारे = 122, जिन्हें = 12, जिन्होंने = 122, कुम्हार = 121, कन्हैया = 122, मल्हार = 121, कुल्हाड़ी = 122 , कुल्हड़ 4
यहाँ *ह* से आगे आया अर्ध अक्षर नहीं गिना जायेगा। दरअसल "ह" के साथ मात्रा गणना करते समय अतिरिक्त सतर्कता जरूरी।
छंद संस्कृत के चद धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ होता है आनन्द अतः जिस कविता-पाठ से रचयिता और पाठक को आनन्द की अनुभूति होती हो वह छंद कहलाती है ।
कविता में *यति गति और लय* सही होनी चाहिए। *तुकांत,* छंद के दोनों चरणों को सम्बंधित करता है जबकि *पदांत*, वह शब्द है जो छंद के दोनों चरणों के अंत में समान होता है । इन सब के कारण ही कोई छंद लिखने पढ़ने व बोलने में आनन्द प्रदान करता है ।
भाग 1
पाठ 2
चौपाई छंद : सममात्रिक छंद
सोलह मात्रा चरण बनाए।
दो चरणों से पद बन जाए ।
दो पद की होती चौपाई।
राम चरित मानस की नाई।।
ध्यातव्य:-
1) चरणांत में गुरु आवश्यक है।
चरणांत में गुरु गुरु/ गुरु लघु लघु/लघु लघु गुरु/ लघु लघु लघु लघु आना शुभ ।
2) एक विषमकल आते ही दूसरा विषमकल रखना जरूरी।
3) दो विषमकलों के बीच जगण (लघु गुरु लघु )के अलावा कोई भी समकल नही रख सकते ।
4) यदि चौपाई में सभी कल चौकल हैं तो वह चौपाई विशेष पादाकुलक छंद कहलाती है।
5) पादाकुलक छंद से मत्त सवैया (16+16) या राधेश्यामी छंद की रचना की जाती है।
उदाहरण
(1)
*होनहार* का चिकना पत्ता।
*हो न हार* हारे अलबत्ता।
सियासती षड्यंत्र अनोखा
खाता है धोखे पर धोखा।।
फिर भी वह विश्वास करे है।
ईश्वर से हर समय डरे है।
साधु न छोड़े सद्गुण अपना।
चाहे रविकर पड़े तड़पना।।
(2)
चौपाई छंद
बहुत दूर तक जाना पड़ता।
खोज-खाज के लाना पड़ता।
तब जाकर मिल पाते सारे।
जो होते नजदीक हमारे।।
(3)
राम जाते जनक फुलवारी, मिली सीता प्यारी कि वाह वाह.
खिलाती उन्हें दे दे गारी, जनकपुर की नारी कि वाह वाह
चौपाई
शांता सुता अवध महकाई.
खुश दशरथ कौशल्या माई
दोनों खोजें भद्र जमाई.
राजपुरुष पर खोज न पाई.
ले भागा कुमारी प्यारी, जटाजूट धारी कि वाह वाह..
राम जाते जनक फुलवारी, मिली सीता प्यारी कि वाह वाह.
चौपाई
चौथेपन तक पुत्र न पाया.
दशरथ जी ने जुगत भिड़ाया.
श्रृंगी ऋषि से यज्ञ कराया.
सात दिनों तक खीर पकाया.
खीर खाकर अवध की नारी, बने महतारी कि वाह वाह..
राम जाते जनक फुलवारी, मिली सीता प्यारी कि वाह वाह.
चौपाई
धनुष भंगकर सीता पाये
लखन भरत रिपुसूदन आये
खुशी न दशरथ हृदय समाती
आये सजधजकर बाराती
क्यों आई न राजकुमारी, बहन बेचारी कि वाह वाह।
राम जाते जनक फुलवारी, मिली सीता प्यारी कि वाह वाह।।
चौपाई
एक कलश से खीर बंटाई।
कौशल्या-कैकेई पाई।
पर आधी आधी ही खाई
शेष सुमित्रा को दे आई।
छवि किसी पुत्र की गोरी, किसी की कारी कि वाह वाह।
राम जाते जनक फुलवारी, मिली सीता प्यारी कि वाह वाह।।
(2) चौपाई आधारित गीतिका
कैसे हो उद्धार जिंदगी।
खिला रही तू खार जिंदगी।।
बेफिक्री में बचपन बीता
व्यर्थ जवानी पार जिंदगी।
आज बुढ़ापा काँख रहा है
फिर भी है आभार जिंदगी।
लोन तेल लकड़ी में उलझा
अब तो उसे पुकार जिंदगी।
एकमेव तू नाव खे'वैया-
दे दे रविकर सार जिंदगी।।
(3)
पर्यावरण दिवस फिर आया।
गंगा लाभ हुआ ही जानो।
अब भी मेरा कहना मानो।
अब तो रविकर चिता सजेगी
एक पेड़ ले देह जलेगी।
कहो कभी क्या पेड़ लगाया ?
पर्यावरण दिवस है आया।। १।।
मनुज दाह-संस्कार जरूरी।
देहासक्ति छूटती पूरी।
रोग-संक्रमण भी मिट जाता।
छूटे हर सांसारिक नाता।
समझो गंगा व्यक्ति नहाया।
पर्यावरण दिवस फिर आया।। २।।
रीति नियम सारे अपनायें।
रिश्तेदार पड़ोसी आयें।
कंधा देना पुण्यकर्म है।
विधि-विधान में छुपा मर्म है।
रविकर गरुड़ पुराण बताया।
पर्यावरण दिवस फिर आया।।३।।
संसाधन को नहीं निचोड़ो।
कम से कम जस का तस छोड़ो।
लो गंगा जल अभी उठाओ।
धरती को कुछ देकर जाओ।
इसी प्रकृति से सब कुछ पाया।
पर्यावरण दिवस फिर आया।।४।।
दीन-दुखी की सेवा करना।
पापकर्म से रविकर डरना।
पेड़ लगाना गाना गाना।
खेती कर दाना उपजाना।
हो न कभी भी दाना जाया।
पर्यावरण दिवस फिर आया।।५।।
(4)
मानव को संस्कार सिखाए ।
कोरोना औकात बताए।।
जब भी घर के अंदर आते।
चौखट पर ही पैर धुलाते।
हाथ जोड़ अभिवादन करते।
गिरि सरि तरु का पूजन करते।
लेकिन दुनिया हँसी उड़ाये।
कोरोना औकात बताये।।
जीव जन्तु में प्रभु के दर्शन।
सूर्य चाँद धरती का वंदन।
योगासन पर बड़ा भरोसा।
हर संस्कृति को पाला-पोसा।
दुनिया तब भी हँसी उड़ाये।
कोरोना औकात बताये। ।
लाश जलाकर जब भी आते ।
सबसे पहले सभी नहाते।
तेरह दिन का शोक मनाना।
हाथ पैर मुँह धोकर खाना।
दुनिया तब भी हँसी उड़ाये।
कोरोना औकात बताये।।
(5)
त्यौहार का मौसम
बीत गया भीगा चौमासा । उर्वर धरती बढती आशा ।
त्योहारों का मौसम आये। सेठ अशर्फी लाल भुलाए ।
विघ्नविनाशक गणपति देवा। लडुवन का कर रहे कलेवा |
गाँव नगर नवरात्रि मनाये । माँ दुर्गे की महिमा गाये ।
विजया बीती करवा आए। पति-पत्नी का प्यार बढाए।
जमा जुआड़ी चौसर ताशा । फेंके पाशा बदली भाषा ।।
एकादशी रमा की आई । वीणा बाग़-द्वादशी गाई ।
धनतेरस को धातु खरीदें । नई नई जागी उम्मीदें ।
धन्वन्तरि की जय जय बोले । तन मन बुद्धि निरोगी होले ।
काली पूजा बंगाली की । लक्ष्मी पूजा दीवाली की ।।
झालर दीपक बल्ब लगाते । फोड़ें बम फुलझड़ी चलाते ।
खाते कुल पकवान खिलाते । एक साथ सब मिलें मनाते ।
लाल अशर्फी फड़ पर बैठी | रहती लेकिन किस्मत ऐंठी ।
फिर आया जमघंट बीतता | बर्बादी ही जुआ जीतता ।।
लाल अशर्फी होती काली | कौड़ी कौड़ी हुई दिवाली ।
भ्रात द्वितीया बहना करती | सकल बलाएँ पीड़ा हरती ।
चित्रगुप्त की पूजा देखा । प्रस्तुत हो घाटे का लेखा ।
सूर्य देवता की अब बारी। छठ पूजा की हो तैयारी ।।
(6)
चौपाई
क्षिति जल पावक गगन समीरा
घटिया दूषित जमा जखीरा ।
खनन माफिया छली बली है।
रपट खूफिया बहुत खली है।
निर्माता अब देता ठेके ।
बना बना के जस तस फेंके ॥
आलोचना सदैव अखरती ।
निंदा आग बबूला करती ॥
क्षिति को शिला जीत उकसाए ।
कामातुर अँधा हो जाए ।
आसमान पर थूका करता ।
मानव बरबस पानी भरता ।
नीति-नियम का उल्लंघन कर ।
करता जलसे मानव अक्सर ॥
हवा हवाई किले बनाता ।
किन्तु नहीं चिंतित निर्माता ॥
(7)
जिन्दा अब भी बप्पा मेरे।
मूँछे रखते थे बड़ी बड़ी।
धोती कुर्ता थी हाथ घड़ी।
थे जूते चश्मा कलम छड़ी।
नजरें हम पर वे रखें कड़ी।
चौबिस घंटे साँझ सवेरे।
जिन्दा अब भी बप्पा मेरे।।
सदरी पहने उजली काली।
रखें डायरी गीता वाली।
दो जेबो वाली गंजी थी।
सदा साथ चाकू कंघी थी।
राजदूत पे बाहर जाते।
श्रम से रूपया रहे कमाते।
सच्चाई के बड़े चितेरे।
अब भी जिन्दा बप्पा मेरे।।
(
आलू यहाँ उबाले कोई |
बना पराठा खा ले कोई ||
तोला-तोला ताक तोलते,
सोणी देख भगा ले कोई |
जला दूध का छाछ फूंकता
छाछे जीभ जला ले कोई |
जमा शौक से करे खजाना
आकर उसे चुरा ले कोई ||
लेता देता हुआ तिहाड़ी
पर सरकार बचा ले कोई ||
"रविकर" कलम घसीटे नियमित
आजा प्यारे गा ले कोई ||
(9)
बातों में लफ्फाजी देखो।
छल छंदों की बाजी देखो।।
मत दाता की सूरत ताको।
नेता से नाराजी देखो।।
लम्बी चैटों से क्या होगा।
पंडित देखो काजी देखो।।
अंधा राजा अंधी नगरी।
खाजा खा जा भाजी देखो।।
लंगड़ी मारे अपना बेटा
बप्पा चाचा पाजी देखो।।
पैसा तो हरदम जीता है
रविकर घटना ताजी देखो।।
(10)
जबसे मानव खूंखार हुआ।
धरती का बंटाधार हुआ।
जीवों पर अत्याचार शुरू।
शेरों का हुआ शिकार शुरू।।
इनका जंगल में राज रहा।
जीवों ने हरदम जुल्म सहा।
कुछ को तो अभयारण्य मिला।
फिर भी जाते कुछ जीव बिला।।
चंडूखाने में दारू है।
मानव-मन खुद पर भारु है।
बूचड़खाने में गायें हैं।
खाने में मांस पकाये हैं।।
बैठक में जीव-जन्तु साजे।
बाघ-चर्म पर आप विराजे।
गौरैया पर लगा निशाना।
हुआ शिकारी जाना-माना।।
पाठ 3
दोहा छंद : अर्ध सममात्रिक छंद
दोहे रचना है सरल, थोड़ा सा दो ध्यान।
मात्रा गणना सीख लो, गुरु लघु हैं आसान।
गुरु लघु हैं आसान, चार चरणों का चक्कर।
तेरह ग्यारह मात्र, रखो मात्रायें गिनकर ।
विषम चरण का अंत, सदा लघु गुरु से सोहे।
लेकिन सम चरणांत, रचो गुरु लघु रख दोहे।।
ध्यातव्य:
1) दोहा छंद में चार चरण होते हैं. दो चरणों का एक पद होता है इसलिए दोहे को द्विपदी छंद कहते हैं. प्रथम और तृतीय चरण में 13 मात्राएँ होती हैं इन्हें विषम चरण कहा जाता है. द्वितीय और चतुर्थ चरण में 11 मात्राएँ होती हैं, इन्हे सम चरण कहते हैं.
उदाहरण
"रस्सी 4 जैसी 4 जिंदगी 5"
(प्रथम चरण ) कुल मात्रा भार 13
"तने 3 तने 3 हालात 5"
(द्वितीय चरण ) कुल मात्रा भार 11
"एक सिरे पर ख्वाहिशें"
(तृतीय चरण ) मात्रा भार 13 (स्वयं जाँच करें )
"दूजे पर औकात." (चतुर्थ चरण ) मात्रा भार 11(स्वयं जाँच करें )
(2) विषमचरणों में चरणान्त लघु गुरु या लघु लघु लघु से करना अनिवार्य. जबकि समचरणों का चरणान्त गुरु लघु से करना नितांत आवश्यक.
(3) दोहे के दोनों पदों में कल - व्यवस्था
अष्टकल + पंचकल, अष्टकल + त्रिकल
अष्टकल = चौकल + चौकल या त्रिकल + त्रिकल +द्विकल
(चौकल पर शब्द पूर्ण होना आवश्यक, पहली और पाँचवी मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं करना चाहिए)
पंचकल = गुरु लघु गुरु (दोहे की ग्यारहवीं मात्रा सदैव लघु रहेगी)
4) जगण (जहाज, कबीर जैसे शब्द अर्थात लघु गुरु लघु ) पद के प्रारम्भ में प्रयोग वर्जित. पदों के मध्य में प्रयोग करते समय भी लय बाधित नहीं होनी चाहिए.
5) संयोजक और कारक शब्दों का प्रयोग टालने का प्रयास करना चाहिए.
अभ्यास 1
दोहा
रविकर यदि छोटा दिखे,
(13 विषम चरण)
नहीं दूर से घूर।।
( 11 मात्रा सम चरण)
फिर भी यदि छोटा दिखे,
(13 विषम चरण)
रख दे परे गुरूर।।।
(11 मात्रा सम चरण)
ऊपर लिखा दोहा देखें। मात्राभार समझने की कोशिश करें।
अब चरणांत के नियम पर ध्यान दीजिए ।
"तेरह मात्रा इस ओर, रख ग्यारह इस तरफ।"
किन्तु यह पद दोहे का नही है क्योंकि दोनो चरणों का अंत विधान अनुसार नही है।
विषम का समापन लघु दीर्घ से होना चाहिए। ओर ->
ओ दीर्घ और र लघु है यानी सम चरणांत के लिए सही है।।
तेरह मात्रा इस तरफ, रख ग्यारह इस ओर।
लघु गुरु इस चरणांत में, इत गुरु लघु पर जोर।।
अभ्यास-1
दोहे को सही तरीके से सजायें।
(1)
प्रतियोगिता गला-काट, एक प्रतियोगी तो |
आज हो कल से बेह्तर, रविकर बुद्धि-विवेक।।
(2)
नहीं अच्छे अच्छों का, लोग करें भरोसा ।
भरोसा ही किन्तु रहा, दुर्योग रविकर का।।
(3)
सद्चरित्र का ज्यों संग, दुकान रविकर इत्र ।
खरीद लो अथवा नहीं, इंसान महक उठे ।।
अभ्यास 2
कौन सा सर्वोचित, कृपया बताएं:
रविकर विनय विवेक बिन, सारे सद्गुण व्यर्थ।
चढ़े सफलता श्रृंग पर, हो अन्यथा अनर्थ।।1
रविकर विनय विवेक बिन, सारे सद्गुण व्यर्थ।
चढ़े उच्चतम श्रृंग पर, मानव सफल समर्थ।।
रविकर विनय विवेक बिन, सब सद्गुण बेकार।
जिस भी चोटी पर चढो, ये उसके आधार।।
अभ्यास 3
*अभ्यास १*
दिये गये शब्दों को दो भागों में बाँटिए। पहले भाग में वे शब्द चुनें जो वाचिक लघु-गुरू (१२ या १११ मात्रा भार) पर समाप्त हो रहे हैं। इन्हें उपशीर्षक *#विषम चरणांत* के अंतर्गत रखें।
दूसरे भाग में गुरु-लघु (२१) पर समाप्त होने वाले शब्द चुनें। इन्हें उपशीर्षक *#सम चरणांत* के अंतर्गत रखें।
रमेश रहे हीर पंकज भैया काम किया सुगंध सुगंधा कत्ल कतल आत्म प्रीति कर्ण स्नेह प्रभा अमन रामेंद्र जिंदगी कंस मामा बलराम लखनऊ बरेली आसवन क्षरण कैलाश एक कविराज कविता छंद क्षमा क्षमता
*ध्यातव्य* : कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो किसी उपशीर्षक के अंतर्गत नहीं आयेंगे।।
*अभ्यास २*
आशावादी आया आमजन खाया समझाते चल गया अविराम छूट गया सामान
नहीं हुआ कीर्तन भजन योगा सन व्रत ध्यान बिना सद्गति कर्म नहीं, कर लो काम रविकर
ऊपर दिये गये शब्दों को श्रृंखला के प्रारम्भ से निम्नलिखित क्रम में छाँटिए।
चौकल चौकल द्विकल त्रिकल, त्रिकल त्रिकल पंचकल।
त्रिकल त्रिकल चौकल त्रिकल, चौकल द्विकल द्विकल त्रिकल।।
अष्टकल पंचकल, छहकल पंचकल।
शेष सभी शब्द क्रमशः लिख लीजिए।।
थोड़ा फेरबदल करके देखिए। दोहे का रूप देने का प्रयास कीजिये।।
रस्सी जैसी जिंदगी, सकी न तन को बाँध।
हाथों से जाती फिसल, पीछे छोड़ सड़ाँध।। #लाश
रस्सी जैसी जिंदगी, आज फाँस कल डोर। #बुरीचीज/भली चीज
धैर्य धरो उद्यम करो, फिर भवितव्य अगोर।।
रस्सी जैसी जिंदगी, बल खाती अविराम। #ऐंठ/रोष
कहीं न मुँह के बल गिरे, कर दे काम तमाम।।
है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान.
चढ़े व्यक्ति झुककर अगर, चढ़ना हो आसान.
दौड़ लगाती जिन्दगी, सचमुच तू बेजोड़ ।
यद्यपि मंजिल मौत है, फिर भी करती होड़ ।।
रस्सी जैसी जिंदगी, तने-तने हालात।
एक सिरे पर ख्वाहिशें, दूजे पर औकात ।
रस्सी जैसी जिन्दगी, लड़ी-लड़ी में फेर। #यमक
लड़ी-भिड़ी बल ढल गया, हुई अंततः ढेर।।
रस्सी जैसी जिंदगी, समझ रहे यदि सर्प।
नाचो रविकर बीन पर, छोड़-छाड़ कर दर्प।।
(2)
वीर तिरे शहतीर पर, लेकर तीर-कमान।
शत्रु तीर पर है खड़ा, डाल रहा व्यवधान।।
मारे यमुना-तीर से, जब भी रविकर तीर |
एक तीर से ही करे, दो शिकार वह वीर |||
(3)
मीरा शबरी पवनसुत, प्रेम प्रतीक्षा भक्ति।
पूर्ण समर्पण के बिना, मोक्ष न पाये व्यक्ति।|
जब भी देता प्रेम-ज्वर, प्राणांतक सी पीर।
बहते औषधि-अश्रु तब, चंगा करे शरीर।|
प्रेम परम उपहार है, प्रेम परम सम्मान।
रविकर खुश्बू सा बिखर, निखरो फूल समान।।
जिए प्रेम हर हाल में, मर मर जाय शरीर |
फर्क पड़े कंकाल पर, सह प्राणान्तक पीर ||
गाली गा ली प्रेम से, बढ़ा प्रेम-सद्भाव |
किन्तु बके यदि क्रोध से, बढ़े द्वेष-अलगाव ||
सिल-बट्टे पीसा किये, यादें-वादे-प्रेम ।
बट्टा दे बट्टा लगा, सिल का भाड़े गेम।|
होली हो ली प्रेम की, बिन अबीर बिन रंग।
छूने पे पीली हुई, पी ली फिर रस भंग।|
प्यास नहीं रविकर बुझी, कर से प्याला छूट।
साकी सा की प्रेम-छल, ली तन मन धन लूट।।
गिरधर की उंगली अगर, दिखा रही है शक्ति।
अधर-हस्त वंशी बजा, करें प्रेम-अभिव्यक्ति।|
भाग 2
चौपाई और दोहे पर आधारित छंद
पाठ 1
सरसी छंद
विधान : चौपाई का एक चरण + दोहे का सम चरण
चार पंक्ति सोलह ग्यारह की, दो दो पंक्ति तुकांत.
आदि चरण चौपाई सा हो, दोहे सा चरणान्त..
उदाहरण
सफल जिंदगी की ही गाथा, गाते सारे ज्येष्ठ।
पर रविकर संतुष्ट जिंदगी, लगे स्वयं को श्रेष्ठ।
करे आकलन जो पहली का, कर सकता वह भूल।
दूजी का खुद करे आकलन, यही तथ्य तो मूल।।
(2)
मेरा परिचय
जिला अयोध्या का पटरंगा, सन उन्निस सौ साठ।
जन्म लिया स्वातन्त्र्य दिवस पर, पढ़ा प्राथमिक पाठ।
झांसी से डिप्लोमा पढ़कर, चंडीगढ़ प्रस्थान।
कर्मक्षेत्र था झारखंड का, प्रौद्योगिक-संस्थान।।
मिले धर्मपत्नी सीमा से, तनु मनु शिवा अपत्य।
चालिस वर्षों से काव्यात्मक, प्रस्तुत करता कथ्य।
गूँथ-गूँथ वर्णों का आंटा, शब्द गढ़ूँ फिर छंद।
चढ़ा चासनी भावों की मैं, बाँट रहा मकरंद।।
(3)
बोलो खुलकर बोलो जम के, नहीं रहो चुप आज |
अगर जरुरी लगे मौन से, तुमको वे अल्फाज |
कान लगाकर सुनती दुनिया, तर्क प्यार तकरार |
रविकर सुनता लगा लगा दिल, हर खामोश पुकार ||
(4)
सरसी छंद
नाटककार क्रांतिकारी वे, कवि लेखक विद्वान।
बंग-भंग आन्दोलनकारी, एक वकील महान।
कालापानी हँसकर झेला, पुस्तक लिखीं अनेक।
नमन करे स्वातंत्र्य-वीर को, रविकर माथा टेक।।
(5)
उमड़-घुमड़ कर बादल बरसे, घटा घिरी घनघोर।
मोर-पपीहा दादुर बोले, करें कर्णप्रिय शोर।
रूखी-सू़खी धरा तरबतर, विहँसे तन-मनमोर।
खेतों में भी रौनक आई, सोंधी-सोंधी भोर।।
(6)
रस्सी जैसी तनी जिंदगी, तने तने हालात।
एक सिरे पर खड़ी ख्वाहिशें, दूजे पे औकात।।
जब भी नाचें मस्त-ख्वाहिशें, सत्ता खाये खार।
फिर अनारकलियाँ चुनवा दे, बना बना दीवार।।
(7)
डूब रहा जलयान जलधि में, बढे छिद्र आकार |
छिद्रान्वेषण करे किन्तु सब, छत पर खड़े सवार ||
अच्छी बातें कहा-सुना जग, अब तक लाखों बार |
करे न कोई किन्तु अमल जब, डूबेगा संसार |
(
मिले न अपनी शर्तो पर सुख, मार्ग कंटकाकीर्ण।
दूजे की शर्तों पर जी लो, हो क्यों हृदय विदीर्ण।।
जीर्ण-शीर्ण होती है काया, रविकर मिले नवीन |
लेकिन आत्मा अजर अमर है, होती नहीं मलीन ||
(9)
पहला बंदर बंद करे मुँह, दूजा बंदर कान। रहे तीसरा आँख बंद कर, था चौथा गुमनाम ।।
आज सामने आया चौथा, बंदर वह शैतान।
नाक बंद कर बैठा घर में, गांधी जी की मान।।
(10)
सरसी छंदाधारित
एकलव्य ने दिया अंगूठा, खुद से हुआ अपंग ।
द्रोण सरीखे गुरू हमेशा, रहते सत्ता संग ।
गिरगिटान सा रहे बदलते, शासक हरदम रंग ।
गाँव-राँव की देख परिस्थिति, रविकर चिन्तक दंग ।
लैप-टॉप पे रहें घूमते, हाथ-पैर में जंग।
अधकचरी है सकल व्यवस्था, हुवे स्वयं से तंग ।
घूम रही आधी आबादी, अब भी नंग-धडंग ।
फिर भी उनके आका-लड़ते, दुनिया भर में जंग ।।
एकलव्य देने को आतुर, अपना अंग-प्रत्यंग ।
रविकर जल्दी उसे बना लो , मुख्य-धार का अंग ।
(11)
गोस्वामी कृत हनुमान चालिसा (सरसी छंद में)
दोहे
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारु।
बरनउँ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चारु।
बुद्धि हीन तनु जानिके, सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार।।
#सरसी छंद
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, दो अँजुरी भर डाल।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर, स्वर्ग-मृत्यु-पाताल।
रामदूत अतुलित बलधामा, दो हितकारी शक्ति।
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा, मिले स्वामि तव भक्ति।।
महावीर विक्रम बजरंगी, कर दो दूर अशुद्धि।
कुमति निवार सुमति के संगी, दे दो निर्मल बुद्धि।
कंचन बरन विराज सुबेसा, परम अलौकिक रूप।
कानन कुंडल कुंचित केसा, कटि करधनी अनूप।।
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे, ले असुरों के प्राण।
काँधे मूँज जनेऊ साजे, पुष्प-माल पद-त्राण।
शंकर-सुवन केसरी नंदन, मकरध्वज के तात।
तेज प्रताप महा जग बंदन, महिमा जग-विख्यात।।
विद्यावान गुनीं अति चातुर, त्वरित बुद्धि उपयोग।
राम काज करिबे को आतुर, बने सकल संजोग।
प्रभू चरित सुनिबे को रसिया, भजते आठों याम।
राम लखन सीता मन बसिया, रविकर करे प्रणाम।।
सूक्ष्म रूप धर सियहि दिखावा, हुआ उन्हें सन्तोष।
विकट रूप धर लंक जरावा, बचा विभीषण कोष।
भीम रूप धर असुर सँहारे, काट दिए भवताप।
राम चंद्र के काज सँवारे, लंका करे विलाप।।
लाय सजीवन लखन जियाये, मिटा युद्ध संताप।
श्री रघुबीर हरसि उर लाये, करके बंद प्रलाप।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, सुनें सकल वृत्तांत।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई, शाँत हुआ मन क्लांत।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावै, किया कार्य सम्पन्न।
अस कहि श्री पति कंठ लगावै, वानर-भालु प्रसन्न।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, करते हैं गुणगान।
नारद सारद सहित अहीसा, करें प्रकट सम्मान।
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कर न सकें यश गान।
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते, जय जय जय हनुमान।
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, हुआ बालि मद चूर।
राम मिलाय राज पद दीन्हा, दिया साथ भरपूर।।
तुम्हरौ मंत्र विभीषण माना, जय जय जय रघुनाथ।
लंकेश्वर भै सब जग जाना, दिया समर में साथ।
युग सहस्त्र योजन पर भानू, करते क्षण में प्राप्त।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू, हुआ अँधेरा व्याप्त।
प्रभू मुद्रिका मेलि मुख माहीं, सुरसा संकट टाल।
जलधि लाँघ गै अचरज नाहीं, काट सकल जंजाल।
दुर्गम काज जगत के जेते, देखे बहुत दुरूह।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते, सहज तोड़ते व्यूह।।
राम दुवारे तुम रखवारे, रहें सदा चैतन्य।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे़, करे न कोई अन्य।
सब सुख लहैं तुम्हारी सरना, पाता परमानन्द।
तुम रक्षक काहू को डरना, रचता सरसी छंद।।
आपन तेज सँभारो आपे, और सँभारे कौन।
तीनों लोक हाँकते काँपे, हो जाते हैं मौन।
भूत पिशाच निकट नहि आवै, ऐसा प्रबल प्रताप।
महावीर जब नाम सुनावै, मिटते दारुण शाप।।
नाशै रोग हरै सब पीरा, जन्म जन्म के कष्ट।
जपत निरन्तर हनुमत वीरा, मिलता फल सुस्पष्ट।
संकट से हनुमान छुड़ावै, रहे न कोई बन्ध।
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै, पाता रहे सुगन्ध।
सब पर राम तपस्वी राजा, जो हैं ब्रह्म स्वरूप।
तिनके काज सकल तुम साजा, जय जय जय सुर भूप।।
और मनोरथ जो कोइ लावै, करें पूर्ण हनुमान।
सोइ अमित जीवन फलु पावै, हो जग का कल्यान।।
चारो जुग परताप तुम्हारा, कणकण में हो व्याप्त।
है परसिद्ध जगत उजियारा, करते तमस समाप्त।
साधु संत के तुम रखवारे, संरक्षित हर भक्त।
असुर निकंदन राम दुलारे, राम चरण अनुरक्त।
अष्ट सिद्ध नव निधि के दाता, हनुमत महा प्रवीन।
अस वर दीन्ह जानकी माता, उच्च शिखर आसीन।
राम रसायन तुम्हरे पासा, रहो बुझाते प्यास।
सदा रहो रघुपति के दासा, सुनो भक्त अरदास।।
तुम्हरे भजन राम को भावै, बजे सतत खड़ताल।
जन्म जन्म के दुख विसरावै, हर सुख रहे सँभाल।
अंत काल रघुवर पुर जाई, भवसागर कर पार।
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई, हो सबका उद्धार।।
और देवता चित न धरई, गया सभी को भूल।
हनुमत सेइ सर्व सुख करई, यही तथ्य अनुकूल।
संकट कटै मिटै सब पीरा, हो समाप्त अवसाद।
जो सुमिरै हनुमत बलवीरा, करे हमेशा याद।
जय जय जय हनुमान गुसाईं, जय जय जय श्री राम।
कृपा करौ गुरुदेव की नाईं, बनें बिगड़ते काम।
जो शत बार पाठ कर जोई, शाँन्त चित्त अभ्यास।
छूटै बन्ध महा सुख होई, रविकर बिना प्रयास।
जो यह पढ़े हनुमान चालिसा, हनुमत कृपा अपार।
होय सिद्ध साखी गौरीसा, वेद मूल आधार।
तुलसी दास सदा हरि चेरा, सदा परम प्रिय दास।
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा, मठ-मंदिर-आवास।।
दोहा
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
भाग 2 चौपाई + दोहा आधारित छंद
पाठ 2
सार छन्द
विधान = सरसी के अन्तिम लघु को गुरु करना है। 16+12 मात्रायें
चौपाई दोहे से पहले, सरसी छन्द रचाएँ।
हर पद के अंतिम लघु को गुरु, क्रमश: करते जाएँ।
दो गुरु मात्रा तुक पदांत में, बहुत जरूरी रविकर।
पद में सोलह-बारह मात्रा, सार छंद हो सुन्दर। ।
उदाहरण (1)
दया करो हे वीणापाणी सुन लो विनय हमारी।
सरस-ज्ञान से वंचित हैं हम, हरो मूढ़ता सारी।
महाश्रया मालिनी चंद्रिका वक को हंस बना दो।
उगे हुए कैक्टस अंतर में, सुंदर पद्म खिला दो।।
महाभुजा दिव्यंका विमला, मैले वस्त्र हमारे।
नवल-धवल पट कर प्रदान माँ, ताकि प्राणतन धारे।
देवि ज्ञानमुद्रा त्रिगुणा जय, सुवासिनी की जय हो।
माँ शुभदा शुभदास्तु बोल दो, हमें न किंचित भय हो।।
(2)
जब भी जाता पास अतिथि के, पूछें पास बिठाकर |
होकर बड़े, बनोगे क्या तुम, रविकर बोलो उत्तर |
किन्तु अभी तक नहीं दे सका, आज बुढ़ापा आया |
होकर बड़ा बनूँगा बच्चा,पक्का उत्तर पाया ||
(3)
बिना बवंडर-मेघ गगन में, कुशल पायलट कैसा |
दुर्गम-पथ बिन, कुशल-ड्राइवर, कभी न बनता वैसा |
गड्ढे ठोकर बिना जिंदगी, कहाँ चलेगी रविकर |
जोखिम बिना उठाये कोई, बने न मानव बेह्तर ||
(4)
दुनिया ने हर वस्तु यहाँ पर, बेची और खरीदी ।
किन्तु नहीं सुख बेचे कोई, कैसी नाउम्मीदी।
दुख भी नहीं खरीदे कोई, रविकर जीवन भारू।
माँग और आपूर्ति अजब है, हुआ प्रेम बाजारू।।
(5)
ख्वाहिश अपनी पंगे लेती, उधर तमन्ना उसकी।
टकराने से आधी आधी, मिट जाती जब मुस्की।
दोनों की औकात बीच में, भरती ठंडी आहें ।
करें परस्पर समझौता वे, रविकर खूब सराहें ।।
(6)
सम्बंधों के मध्य गलतियाँ, गई रोज दुहराई।
अक्सर हम आधा ही सुनते, समझें बस चौथाई।
ऊपर से हम शून्य सोचते, स्वत: बुद्धि भरमाई।
किन्तु करे प्रति क्रिया दोगुनी, हो न सके भरपाई।।
(7)
हाथ खड़े कर देता पति जब, तोड़ न पाता तारे |
उठा आसमाँ लेती सिरपर, नैन बहे कजरारे |
दिन में वह तारे दिखलाती, पति घुटनों पर आया |
नाच उँगलियों पर जीवन भर, नाकों चने चबाया ||
(
नंदगांव के दल का नायक, छलिया कृष्ण मुरारी।
बरसाने में राधारानी, पाई जिम्मेदारी।
दल की नई नायिका राधा, हाथ उठाकर बोली।
अपने-अपने लट्ठ सँभालो, अक्षत चन्दन रोली।
रंग अबीर गुलाल लगाकर, करो लट्ठ की पूजा।
नन्दगाँव का दल आ पहुंचा, काम न कर अब दूजा।
डट जाओ सब व्यूह बनाकर, कर लो सब तैयारी।।
नन्दगाँव के दल का नायक, छलिया कृष्ण मुरारी।
मुरलीधर मुरली धर कहते, बजा चैन की वंशी।
झट झंडा फहरा देंगे हम, सब के सब यदुबंशी।
राधा का बक-ध्यान बँटाना, काम हमारा पहला।
हर मौके पर चौके जड़ना, हर नहले पर दहला।
हर हालत में बरसाने में, होगी जीत हमारी।
नन्दगाँव के दल के नायक, अपने कृष्ण मुरारी।
हुआ जुझारू युद्ध शुरू फिर, शुरू लट्ठ बरसाना।
बरसाना आकर गलती की, लगे श्याम जतलाना।
इसी बीच मुरली बज उठती, सुध-बुध खोती राधा।
घबरा जाती सभी गोपिया, फलत: हटती बाधा।
मंदिर पर फहराते झटपट, झंडा फिर गिरधारी।
नन्दगाँव के दल का नायक, छलिया कृष्ण मुरारी।।
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 3
ताटंक / कुकुभ /लावणी
विधान
16+ 14 = ताटंक छंद, अंत 3 गुरु से
16 + 14 = कुकुभ छंद, अंत 2 गुरु से
16+14 = लावणी छंद, अंत 1 गुरु से
उदाहरण
(1)
आजा वापस नटखट बचपन, पचपन बड़ा सताए रे |
गठिया की पीड़ा से ज्यादा, मन-गठिया तड़पाये रे |
भटक-भटक के अटक रहा ये, जिधर इसे कुछ भाये रे |
आजा वापस नटखट बचपन, पचपन बड़ा सताए रे ||1||
बच्चों के संग रविकर जीवन, मस्ती भरा बिताया रे |
रोज साथ में खेलकूद कर, नीति-नियम सिखलाया रे |
माता वैरी, शत्रु पिता जो, बच्चा नहीं पढाया रे |
तन्मयता से एक-एक को, डिगरी बड़ी दिलाया रे ||2||
गये सभी परदेस कमाने, विरह-गीत मन गाये रे |
रूप बदल के आजा बचपन, बाबा बहुत बुलाये रे |
गठिया की पीड़ा से ज्यादा, मन-गठिया तडपाये रे |
आजा वापस नटखट बचपन, पचपन बड़ा सताए रे ||3||
(2)
केवल खुश रहना विकल्प है, बहा रहे हो क्यों मोती।
परेशान होने से रविकर, मुश्किल दूर कहाँ होती।
कल की चिन्ता कल पर छोड़ो, हल लेकर कल आयेगा-
क्यूँ सुकून खो रहे आज का, दुलराओ पोता-पोती।।
(3)
आँख झुकाये धक्के खाये कुछ घबराये लगते हो।
कहो किधर से पिट के आये जो बौराये लगते हो।
प्रेमपाश में जकड़ी थी तो, कुछ ज्यादा ही उड़े मियाँ।
की थाने में दर्ज शिकायत, डंडे खाये लगते हो।
बड़ी तमन्ना से दिल देते टोटे टोटे करे प्रिया
मियाँ तजुर्बा लेकर आये क्यूँ भन्नाये लगते हो।
उनका क्या है जब चाहेंगे चुन लेंगे वे आशिक फिर
इस महफिल में दूर शहर से कल के आये लगते हो।
घर के चक्कर लगा लगा के गाके दर्द भरे नगमें
टेढ़े आंगन मे ही रविकर नाच नचाये लगते हो।
(4)
वे दिन भी क्या दिन थे सुंदर, बचपन के मनभावन जी।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, बीत गये दिन पावन जी।
माँ की प्यारी गोद निराली, माँ की प्यारी बोली जी,
सदा नींद बेफिक्री वाली, हरदिन खेल-ठिठोली जी।।
(5)
शोक-वाटिका की ऐ सीते !
राम-लखन के तरकश रीते ||
जगह-जगह जंगल-ज्वाला , उठे धुआँ काला-काला|
प्रर्यावरण - प्रदूषण तम ने, खर - दूषण प्रतिपल पाला ||
हर कुम्भकरण-रावण जीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
सर-सरिता में मिलते नाले, मानव-मळ मुर्दे डाले |
यह विकास की आपाधापी, लगा बुद्धि पर दे ताले||
भाष्य बांचते भगवत-गीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
हरण - मरण उद्योग पनपते, बढ़ रही नई बीमारी |
काम-क्रोध-लालसा लपेटे, हुई आज काया भारी ||
जीवन नहीं बिताये बीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
राग - द्वेष - ईर्ष्या मद फैले, हुए आज रिश्ते मैले |
पशुता भी चिल्लाये-चीखे, मानवता का दिल दहले ||
रक्त-बीज का रक्त न पीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
राह - राह नित 'रविकर' रमता, मरी - मरी मिलती ममता |
जगह-जगह जल्लाद जुनूनी, भ्रूण चूर्ण कर कब थमता ||
कोख नोचते कुक्कुर-चीते -
राम-लखन के तरकश रीते ||
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 4
वीर छंद = आल्हा छंद =16+15 (चरणान्त गुरु-लघु ) अतिश्योक्ति अलंकार का बाहुल्य
उदाहरण
(1)
परमवीर विक्रम बत्रा के, ध्येय वाक्य को करूँ प्रणाम.
ध्वजा तिरंगा फहराऊंगा, कर दुश्मन का काम तमाम.
लिपट तिरंगे में वरना मैं, आ जाऊंगा अपने ग्राम.
आऊँगा मैं पुनः शर्तिया, करने पूर्ण अधूरा काम..
(2)
परमवीर पांडे मनोज की, सुनो आज रविकर हुंकार.
हरमन-प्यारा हिन्द हमारा, हाथ हमारे हठ-हथियार.
शौर्य सिद्ध करने से पहले, मुझे न मौत सकेगी मार.
कसम देश की मार मौत को, करूँ समूल शत्रु-संहार.
(3)
विकट बुद्धि बारूदी हिंसक, कलमकार करता विस्फोट.
भड़काता शहरी आबादी, करता ग्रामीणों पर चोट.
रक्षाबल पर लगा निशाना, छुपा रहा वैचारिक खोट.
लोकतंत्र की करें खिलाफत, किन्तु बेचता रविकर वोट..
(4)
होता सफल मर्द के पीछे, जहाँ एक औरत का हाथ।
वहीं पिता के जूते होते, माँ की चप्पल देती साथ।
वहीं गुरूजी का ड॔डा भी, वहीं कमीने पक्के दोस्त-
योगदान मत भूलो इनका, चलो नवाओ सबको माथ।।
(5)
पत्थरबाजों की अब कैसे, कस पायेंगे आप नकेल।
गली गली में दहशतगर्दी, और व्यवस्था होती फेल।
कोरोना संक्रमित भरे हैं, भरे जमाती रेलमपेल।
करे फैसला झटपट सत्ता, वरना बिगड़ेगा यह खेल।।
(6)
उतावला हो रहा बावला, उतावले होते कौव्वाल।
करे प्रतीक्षा पांच साल फिर, किन्तु न गलती दीखे दाल।
चाहे खाली हो जाये अब, पूरा का पूरा घुड़साल।
बना गधे को घोड़ा देंगे, चाहे हरदिन कटे बवाल।।
(7)
दया करो दुश्मन पर भगवन्, करे हिन्द की सेना अर्ज।
क्योंकि' दया न करते सैनिक, बल्कि निभाते अपना फर्ज।।
संयोग-मात्र से जीवित काया, इच्छा-मृत्यु हमारा प्यार।
मरना है व्यवसाय हमारा, अस्त्र-शस्त्र अपना संसार।।
जो कहता डर लगे न मुझको, सच में झूठ रहा वह बोल।
वह अन्यथा हिन्द का सैनिक, रविकर जिसका त्याग अमोल।।
जिन रोमांचक कार्यों को कर, आम-नागरिक करे गुमान।
वही रोजमर्रा की गतिविधि, सरहद पर कर रहे जवान ।।
फहरा रहा तिरंगा प्यारा, किन्तु हवा गुमसुम गतिहीन।
सांस शहीदों की फहराये, रविकर कारक अर्वाचीन।।
आतंकी को हूर-बहत्तर, चाहे उन्हें भेज दो नर्क।
चुन-चुन कर भेजूंगा प्रभुवर, सेना हरदम रहे सतर्क। ।
(
हरे राम का जाप करे मन, विजयघोष कर जय श्री राम।
दुख से पीड़ित हाय राम कह, लेता रहे राम का नाम।
रा शब्द विश्व वाचक होता, ईश्वर वाचक शब्द मकार।
लोकों के ईश्वर हैं रामा, करवाते भवसागर पार।।
अंत समय हे राम पुकारे, बापू बाबा हिन्दु तमाम।
राम नाम ही सत्य सर्वथा, अंत समय दे चिर-आराम।।
मुँह में राम बगल में छूरी, अवसर पाकर करे हलाल।
आया राम गया भी रामा, पाला बदले पाकर माल।।
राम राम कब पढ़े भला वह, बूढ़ा सुग्गा करे बवाल।
अपनी राम कहानी कहता, सुने न और किसी का हाल।।
सियाराम मय सब जग जानी, करें परस्पर सुबह प्रणाम।
राम भरोसे दुनिया भर के, बन जाते हैं बिगड़े काम।
रखे राम जाही विधि रविकर, ताही विधि रहते हैं लोग।
जिसके राम धनी उसको फिर, कौन कमी कर लो उपभोग।
राम राम ही जपकर दुर्जन, अपना करें पराया माल ।
कर ले सो शुभकाम भले मन, भज ले सो श्री राम कृपाल।
खाली डिब्बे को भी खाली, कहा नहीं जाता श्रीमान्।
राम राम है उसके अंदर, दे दो यह आध्यात्मिक ज्ञान।।
दुविधा में दोऊ चल जाते, माया मिली न राम उदार।
राम नाम में बड़ा आलसी, भोजन में लेकिन हुशियार।।
कहो कहाँ यह टाँय टाँय है, राम राम की कहाँ पुकार।
राम मिलाई जोड़ी बढ़िया, इक अंधा इक कोढ़ी यार।।
राम नाम मणि दीप समाना ,मनुआ श्वाँस श्वाँस उजियार।
राम ध्यान हो प्रानाप्राना , पाप पुण्य चरणन मे वार।।
यजन भजन पूजन आराधन, साधक साधन से आनन्द।
मन आंगन हो जब भुषुण्ड सम , तब मन प्रगटे कौशल चंद।।
राम नाम की लूट मची है, लूट सको तो लूटो भक्त।
वरना अंतकाल पछताना, जब हो जाये देह अशक्त।।
सात-सात हैं पूत राम के, किन्तु काम का एक न दीख।
अगर राम जी की है बकरी, खेत राम जी के हैं सीख।
खाता को दाता प्रभु रामा, भजते रहो राम का नाम।
अगर बिगाड़े राम नहीं तो, कौन बिगाड़े रविकर काम।।
जापर कृपा राम जी करते, करे कृपा उसपर संसार।
राम शपथ सत कहूं सुभाऊ, प्रभु की महिमा अपरंपार।
नाप-तौल-गणना की पहली, गिनती बोली जाती राम ।
बोल सियावर रामचंद्र की, जय जय जयतु अयोध्या-धाम।।
छंद के छलछंद
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 5
राधेश्यामी छंद 16+16 (8 चौकल, प्रारम्भ द्विकल से अनिवार्य)
द्विगुणित चौपाई 16+16
मत्त सवैया 211 भगण + 2 गुरू
सिर पर चढ़कर लगा बोलने, क्रोध तुम्हारा बिगड़ बिगड़कर।
पास खड़े पर दूरी बढ़ती, हुआ तभी इतना ऊँचा स्वर।
इतना चिल्लाना क्यों पड़ता, दिल में रहता कुछ प्रेम अगर।
बिन बोले बतियाते देखा, जिनके दिल में प्यार परस्पर।।
उदाहरण
(1)
बत्तिस सौ अट्ठाइस बी सी, तिथि अट्ठारह मास जुलाई।
कृष्ण-पक्ष अष्टमी भाद्रपद, अर्धरात्रि शुभ बेला आई।
हुआ कृष्ण का जन्म जेल में, था मथुरा का जन-जन सोया।
वासुदेव की नारि देवकी, कृपा देव की बालक रोया।।
इक्तिस सौ उन्तालिस बी सी, आठ दिसम्बर का दिन भारी।
शुरू महाभारत हो जाता, कटती कौरव सेना सारी।
सूर्य-ग्रहण के दिन जयद्रथ वध, था उसदिन इक्कीस दिसम्बर ।
युद्ध चला अट्ठारह दिन तक, जीते पांडव खून बहाकर।।
आकृष्ट हुए जड़ जीव जन्तु, इसलिए कृष्ण वह कहलाए।
मुरलीधर पीताम्बरधारी, गिरिधर कुंजबिहारी आये।
नन्द लला गोविंद चक्रधर , मधुसूदन माधव असुरारी।
देवकी यशोदासुत केशव, रणछोड कन्हैया कंसारी।।
हरि मुकुंद गोपाल मनोहर, मोहन यदुपति छलिया नागर।
राधा वल्लभ सखा सारथी, अघहारी अच्युत योगेश्वर।
नाग-नथैया रास-रचैया, गोविंद वृष्णिपति बनवारी।
आठ महीना और सात दिन, रहे सवा सौ साल मुरारी।
(2)
मिला बाज को काज अनोखा, करे कबूतर की रखवाली |
शीत-घरों की सकल व्यवस्था, चूहों ने चुपचाप सँभाली |
दुग्ध-केंद्र मे धामिन से जब, गाय-भैंस का दूध दुहाया |
मगरमच्छ ने अपनी हद में, मत्स्य-केंद्र मंजूर कराया ||
महाघुटाले - बाजों ने ली, जब तिहाड़ की जिम्मेदारी |
जल्लादों ने झपटी झट से, मंदिर मस्जिद की मुख्तारी ||
अंग-रक्षकों ने मालिक की, ले ली जब से मौत-सुपारी |
संविधान की रक्षा करने, चले उचक्के अत्याचारी ||
तिलचट्टों ने तेल कुओं पर, अपनी कुत्सित नजर गढ़ाई |
रक्त-कोष की पहरेदारी, नर-पिशाच के जिम्मे आई ||
(3)
उस माटी की सौगंध तुझे, तन गंध बसी जिस माटी की।
नभ वायु खनिज जल पावक की, संस्कारित शुभ परिपाटी की ।।
मिट्टी का माधो कह दुर्जन, सज्जन की हँसी उड़ाते हैं।
मिट्टी डालो उन सब पर जो, मिट्टी में नाम मिलाते हैं।।
चुप रह कर कर्मठ कार्य करें, कायर तो बस चिल्लाते हैं।
कुत्ते मिल सहज भौंकते हैं, हाथी न कभी भय खाते हैं।
गीली मिट्टी का लौंदा बन, मुश्किल है दुनिया में रहना।
छल कपट त्याग रवि रविकर तप, अनुचित बातों को मत सहना।
तुलना सिक्कों पर नही कभी, मिट्टी के मोल बिको प्यारे,
मिट्टी में मिलने से पहले, मिट्टी में शत्रु मिला सारे ।।
(4)
हो हो कर हँसती है होली, बोली में बड़ी मिठास दिखे।
हौले से बच्चा हँसता है, जिसमे प्रभु पर विश्वास दिखे।
जनता तो भोली भाली है, महतारी चिंतित ख़ास दिखे।
प्रभु की लीला तो प्रभु जाने, रविकर को लेकिन आस दिखे।
दुनिया में हरदम जुल्म रहा, दानव सुर मानव साथ रहे।
कोई शोषक कोई शोषित, कमजोर सदा अन्याय सहे।
था भेदभाव, है, सदा रहे, कुछ तैर रहे कुछ जाँय बहे।
जब पाप घड़ा भर जाता था, अवतार की ईश्वर बात कहे।
लेकर के गोदी में बैठी, पावक का पुण्य-प्रकाश दिखे।
जब आग लगाई होली में, लपटें छू ली आकास दिखे।
लिपटे-चिपटेे प्रह्लाद दिखे, हिरण्याकश्यप उपहास दिखे।
होली की हो ली रात वहीँ, दैत्यों का व्यर्थ प्रयास दिखे।।
जन जन में ख़ुशी छलकती है, प्रभु की लीला तो न्यारी है।
छोटा सा बालक जिन्दा है, जो जली पड़ी हत्यारी है।
चल रंग अबीर गुलाल उड़ा, सज्जन की जिम्मेदारी है।
हारेगा जब भी दैत्य समझ, त्यौहारों की तैयारी है।।
(5)
पौधा रोपा परम-प्रेम का, पल-पल पौ पसरे पाताली |
पौ बारह काया की होती, लगी झूमने डाली डाली |
जब पादप की बढ़ी उंचाई, पर्वत ईर्ष्या से कुढ़ जाता -
टांग अड़ाने लगा रोज ही, काली जिभ्या बकती गाली |
लगी चाटने दीमक वह जड़, जिसने थी देखी गहराई -
जड़मति करता दुरमति से जय, पीट रहा आनंदित ताली |
सूख गया जब प्रेम वृक्ष तो, काट रहा जालिम सौदाई -
आज ताकता नंगा पर्वत, बिगड़ चुकी जब हालत-माली |
लगी खिसकने चट्टानें अब , भूमि-क्षरण होता है हरदम -
पर्वत की गरिमा पर धक्का, धिक्कारे जो दीमक पाली ।।
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 5
रास छंद 16+6 पदांत लघु गुरू
रावण का आतंक धरा पर, बहुत बढ़ा।
शीश काटकर शिव चरणों में, रहा चढ़ा।
नर-वानर गन्धर्व-यक्ष को, मार रहा।
थर-थर काँपे इंद्रादिक सुर, स्वर्ग दहा ।।
हो मदांध तो सूर्पनखा की, नाक कटी।
सियाहरण की घटना देखी, पंचवटी।
नारि-सुरक्षा गिद्ध जटायू, गये सिखा।
शबरी जूठे बेर खिलाये, प्रेम दिखा।।
रामभक्त हनुमान मिले तो बात बनी.
मित्र बने सुग्रीव बालि से, रार ठनी.
राम-वाण से बालि पहुंच सुर-धाम गया.
बालिपुत्र अंगद पर करते, राम दया।।
सीता जी की खोज चतुर्दिक, शुरू हुई।
जैसे रेगिस्तान मध्य हो, पड़ी सुई।
फिर अशोक-वाटिका मध्य जब, मिली सिया।
हनुमत ने मुद्रिका मनोहर, उन्हे दिया।।
लंकादहन किया हनुमत ने, दैत्य डरे।
बड़ी कुशलता से रघुवर का, काज करे।
चूड़ामणि सीता का पाकर, लौट पड़े।
कपिदल लेकर राम लखन हनुमान लड़े।।
लौटे लंका जीत हमारे, राम लला।
सजी अयोध्या खुश जनगणमन, टली बला।
राम-लखन रिपुदमन-भरत से, गले मिले।
माँ बहुओं के हृदय-पुष्प क्या, खूब खिले।।
(2) पदांत लघु गुरु नहीं हैं इसलिए रास छंद नही हो सका।
नहीं चाहिए मरहम-पट्टी, बे-दर्दी।
नहीं चाहिए तेरी कोई, हमदर्दी।।
घाव हमारे बे-हद प्यारे, हमें लगे,
सादे जीवन में इसने रौनक भर दी।
ठहर-ठहर कर भरता जैसे, आह अभी
रविकर को तो हुई ज़रा खाँसी-सर्दी।
तन के घावों की चिंता अब नहीं मुझे
अन्तर-मन की पीर, बड़ा अन्तर कर दी ||
ध्यातव्य:22 मात्रा के अन्य छंद राधिका/विहारी/कुंडल/उड़ियाना एवं सुखदा
(3)
राधिका छंद (22 मात्रा)
हे राम - भक्त हनुमान , भक्त तव रविकर।
सुन लो मम आर्त - पुकार , रमापति प्रभुवर।
वह एक मात्र प्रिय बहन , सहोदरि रामा।
है उन्हें समर्पित काव्य, रचूँ निष्कामा ।
अनुमति दिलवाकर शीघ्र , काव्य रचवाओ।
है कवि की मति अति-तुच्छ , स्वयं आ जाओ।
अब कृपा करो हे नाथ , जुटे संसाधन।
जय - जय - जय शांता देवि , करूँ आराधन।।
छंद के छलछंद
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 6
गगनांगना 16+9 गुरु लघु गुरु
सात सुतों के वध से व्याकुल, रोती देवकी।
हुए जेल में पैदा कान्हा, किन्तु न रो सकी।
मिटी सकल बाधाएँ रविकर कारागार की.
वासुदेव गोकुल पहुँचाते, यमुना पार की.
नंद-यशोदा मातु-पिता दाऊ बलराम है.
अघ बक तृण पूतना वत्स का, काम-तमाम है.
बाल न बांका हुआ बाल का, बाल महान है.
गोवर्धनधारी बन तोड़ा, इंद्र -गुमान है.
माखन चोरी सीनाजोरी, दल उद्दंड है।
नाथ कालिया नाग नाचते, जोश प्रचंड है।।
हिलमिल रास रचाते मोहन, राधा साथ में।
चीर चुराते, धेनु चराते, वंशी हाथ में।
कान्हा की लीलाएं न्यारी, गोकुल देखता।
धनुष यज्ञ मथुरा में होगा, आया नेवता।
उद्धव का निर्गुण गोकुल में, असफल हो चुका।
जिनमें प्रेम अलौकिक उनका, सिर न कभी झुका.
राधे राधे करते करते, एकाकार वे.
मथुरा जाकर वहीं कंस को, देते मार वे.
मातु-पिता नाना को लाते, कारागार से.
मथुरावासी उन्हें देखते, रविकर प्यार से.
वासुदेव की प्रिया देवकी, अपने देव की.
अपने घर में फिर से पूजन, करने आ सकी.
उग्रसेन का राजतिलक फिर, मथुरा में हुआ.
संदीपनि गुरु के चरणों को, गुरुकुल जा छुआ.
बने सुदामा मित्र वहीं पर, पढ़ते साथ में.
पांचजन्य पा दिया दक्षिणा, गुरु-सुत हाथ में.
जरासंध के हमले से जब, मथुरा जूझती।
गिरधारी रणछोड़ कहाते, युक्ती सूझती।
नगरी नई बसाते गिरधर, पावन द्वारिका।
एक जगह पर किन्तु सुदर्शन, चक्र नहीं टिका।
व्याह रुक्मिणी सहित आठ से, योगी ने किया।
नरकासुर का वध कर मुक्ती, कितनों को दिया।
पाँडव-कौरव के पचड़े में, बरबस ये पड़े।
बिना अस्त्र कुरुक्षेत्र युद्ध में, जमकर ये लड़े।
किन्तु महाभारत से पहले, गीता ज्ञान दे।
फल की फिक्र बिसार कर्म कर, रविकर ध्यान दे।
यद्यपि शान्ति प्रयास किया था, योगीराज ने।
दुर्योधन का दर्प भयंकर, आया सामने।
संस्थापना धर्म की होती, अर्जुन भीम से।
बने युधिष्ठिर भूपति फिर से, विश्वात्मा हँसे।।
छंद के छलछंद
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 7
निश्चल छंद 16+7 पदांत गुरु लघु
सूर्यदेव की पत्नी छाया, के सन्तान।
यम भाई को यमुना बहना, दे सम्मान।
भोजन पर सस्नेह बुलाती, निज आवास।
स्वाद भरे पकवान परोसी, बेहद खास।।
हो प्रसन्न यमराज कहें ले लो वरदान।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि की, रविकर आन।
हर भाई बहना घर जाये, जैसे आप।
भाई का टीका कर हर ले, हर सन्ताप।।
भय न रहे उसे यम का फिर, देती पान।
करे मांग वर यमुना ऐसे, जग-कल्यान।
परम्परा प्रारम्भ तभी से, बिन व्यवधान।
बहना का सौभाग्य अखंडित, हो भगवान।।
छंद के छलछंद
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 8
चौपई छंद = 16-1
खेत हुए अब खेत समेत.
खाये मेढ़ हमारे खेत.
हार खेत खलिहान डकार.
मंहगाई डायन दी मार.
नौ नौ करी नौकरी रोज.
किन्तु न पाया अच्छी खोज.
कभी न रविकर बढ़ी पगार.
मंहगाई डायन दी मार.
रोज खोलता रहा दुकान.
किन्तु न बिकता कुछ सामान.
पार न पाता अब व्यापार.
मंहगाई डायन दी मार.
करती रहती कुदरत कोप.
जिस-तिस पर लगते आरोप.
किन्तु कौन करता स्वीकार.
मंहगाई डायन दी मार।।
छंद के छलछंद
भाग 2
चौपाई पर आधारित छंद
पाठ 9
विष्णुपद छंद
विधान 16+10 पदांत गुरु
(1)
पहले हल हो सकता मसला, हाथ न अपने मल।
कर न प्रतीक्षा कभी पहल की, कर ले स्वयं पहल।
टाल कभी मत काम आज का, कभी न आता कल।
चलो एकला कहें मनीषी, चलना सँभल- सँभल।
(2)
कोरोना का रोना छोड़ो, यूँ मत आह भरो।
आयुष मंत्रालय की मानो, अब मत व्यर्थ डरो।
साफ-सफाई सीखा फिर भी, बाहर मत विचरो-
होनी थी जो हानि हुई अब, नवनिर्माण करो।।
ध्यातव्य: पदांत गुरु-लघु कर दिया जाय तो शंकर छंद बन जायेगा। मात्राओं के अन्य छंद कामरूप/गीता/मात्रिक गीतिका/झूलना हैं।
छंद के छलछंद
भाग 2 चौपाई छंद आधारित छंद
पाठ 10 : भाग 2 का सारांश
#चौपाई (16 मात्रा पदांत गुरु ; दो गुरु शुभ)
वे दिन भी क्या दिन थे सुन्दर।
जिनका जिक्र करे नित रविकर।
माँ की प्यारी गोद निराली।
सदा नींद बेफिक्री वाली।।
(विषमकल हमेशा जोड़े में रखना अनिवार्य)
(1)
चौपाई – 1 = 15 मात्रा का #चौपई छंद, अंत 21
वे दिन भी क्या दिन थे खूब ।
जिनका जिक्र करे महबूब।
अपने माँ की प्यारी गोद।
मस्त नींद आमोद-प्रमोद ।।
(2)
चौपाई + 6 = 22 मात्रा का #रास छंद, अंत 112
वे दिन भी क्या दिन थे सुन्दर, याद करो।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, आह भरो।
माँ की प्यारी गोद निराली, पुण्य-मही।
सदा नींद बेफिक्री वाली, साध रही।।
(3)
चौपाई + 7 = 23 मात्रा का #निश्चल छंद, अंत 21
वे दिन भी क्या दिन थे सुन्दर, कर लो याद।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, वह उन्माद।
माँ की प्यारी गोद निराली, पुण्यस्थान।
सदा नींद बेफिक्री वाली, प्रभु वरदान ।।
(4)
*चौपाई + 9 = 25 मात्रा का #गगनांगना छंद, अंत 212
वे दिन भी क्या दिन थे सुन्दर, बुड्ढा बोलता।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, उसकी क्या खता।
माँ की प्यारी गोद निराली, रौशन है जहाँ।
सदा नींद बेफिक्री वाली, मिलती है यहाँ।।
(5)
*चौपाई + 10 = 26 मात्रा का #शंकर छंद, अंत 21
वे दिन भी क्या दिन थे सुन्दर, सुनो मेरी बात।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, प्रात: शाम रात।
माँ की प्यारी गोद निराली, यही पुण्यस्थान।
सदा नींद बेफिक्री वाली, माँ तो है महान।।
(6)
*चौपाई + 10 = 26 मात्रा का #विष्णुपद छंद, अंत 2
(क)
वे दिन भी क्या दिन थे सुन्दर, तुम भी याद करो।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, उसपर आह भरो।
माँ की प्यारी गोद निराली, लगती पुण्य-मही।
सदा नींद बेफिक्री वाली, सन्तति साध रही।।
(ख) 22 मात्रा
शब्दों के तुम बड़े खिलाड़ी, भाव जमाते हो
अवसर पाकर अंगुली पकड़ी, "पौंचा" पाते हो |
प्यासी धरती पर रिमझिम सावन बरसाते हो
मन-झुरमुट में हौले से प्रिय, फूल खिलाते हो |
एक-घरी रुक के खुद को जो, व्यस्त बताते हो,
हुए अनमने, इधर उधर कर, समय बिताते हो |
रह-रह कर के विरह-अग्नि बरबस भड़काते हो,
रह-रह करके पल-पल तन-मन, आग लगाते हो |
फिर आने का वादा करके, वापस जाते हो,
वापस जाकर के फिर से तुम, हमें भुलाते हो ||
(7)
*चौपाई + 11 = 27 मात्रा का #सरसी/कबीर छंद, अंत 21
वे दिन भी क्या दिन थे सुंदर, बचपन के मनमीत।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, गये आज जो बीत।
माँ की प्यारी गोद निराली, माँ के प्यारे बोल।
सदा नींद बेफिक्री वाली, करता खेल-किलोल।।
(
चौपाई + 12 = 28 मात्रा का #सार छंद, अंत 22
वे दिन भी क्या दिन थे सुंदर, बचपन के मनभावन।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, बीत गये दिन पावन।
माँ की प्यारी गोद निराली, माँ की प्यारी बोली।
सदा नींद बेफिक्री वाली, हरदिन खेल-ठिठोली।।
(9)
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का #ताटंक छंद, अंत 222
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का #कुकुभ छंद, अंत 22
चौपाई +14 = 30 मात्रिक #लावणी छंद
वे दिन भी क्या दिन थे सुंदर, बचपन के मनभावन जी।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, बीत गये दिन पावन जी।
माँ की प्यारी गोद निराली, माँ की प्यारी बोली जी।
सदा नींद बेफिक्री वाली, हरदिन खेल-ठिठोली जी।।
(10)
#वीर या आल्हा छंद (16+15)
वे दिन भी क्या दिन थे सुंदर, तरह तरह के देखे रंग।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, रोना-गाना हास्य उमंग।
माँ की प्यारी गोद निराली, बच्चों को जिसपर विश्वास।
सदा नींद बेफिक्री वाली, सदा सुरक्षा का अहसास।।
(11)
#राधेश्यामी छंद/द्विगुणित चौपाई/मत्त सवैया (16+16)
वे दिन भी क्या दिन थे सुंदर, तरह तरह के रंग दीखते।
जिनका जिक्र करे नित रविकर, रोना-गाना हास्य सीखते।
माँ की प्यारी गोद निराली, जिस पर शिशु को बड़ा भरोसा।
सदा नींद बेफिक्री वाली, इसी गोद ने पाला-पोसा।।