29 November, 2011

भगवती शांता परम सर्ग-5

भाग-3
शांता और रिस्य-सृंग 
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हंसी ||

सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की  | 
सहा बड़ी तकलीफ, मगर बचाई जान सब ||

राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य ठीक करते उसे ||

हुआ रमण का व्याह, नई नवेली दुल्हनी |
पूरी होती चाह, महल एक सुन्दर मिला ||

रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
खुशियाँ पूरी छाय, पाले जग की परंपरा ||

मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
सृन्गेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||

शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||

दो रथ में सब बैठ, घोड़े भी संग में चले |
रही  शांता  ऐंठ, मेला  पूरा जो लगा ||

रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों  की आरेख, बेटे की  लागे भली ||

बेटा  भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, धीरे से निकले सभी ||

 नौकर-चाकर भेज, आगे आगे जा रहे |
 इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||

पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||

सुबह-सुबह अस्नान,  सप्त-पोखरों में करें |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||

कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||

रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||

तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||

गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||

ऋषिवर को परनाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||

हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||

पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, दुग्ध चढ़ाये विल्व पत्र ||

रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये  शिविर ||

गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||

बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
बैठा साथे सोम, विविन्डक ऋषिराज के ||

संध्या  सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||

अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||

लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||

खट-पट करे खिडाव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||

शांता शान्ति छोड़, असमंजस में जा पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, करती है प्रणाम फिर ||

मैं सृंगी हूँ जान, ऋषी राज के पुत्र को |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||

मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||

पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी है बड़ी ||

कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रात दिन |
पूरे  कौन  सवाल, दुनिया के फिर करेगा ||

बदले दृष्टिकोण, रिस्य सृंग का प्रवचन |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ प्रणाम कर ||

लौटी रूपा देख, बढे सृंग आश्रम गए | 
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||

लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||

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