24 June, 2012

भगवान् राम की सहोदरा (बहन) : भगवती शांता परम-5

सर्ग-1

अथ - शांता 

भाग-1
भाग-2 
भाग-3
भाग-4
 भाग-5
 रावण के क्षत्रप 
सोरठा
रास रंग उत्साह,  अवधपुरी में खुब जमा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||


चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार,  हृदय कोष सन्तोष धन |
पांच कोस विस्तार, कनक भवन के अष्ट कुञ्ज |
इतने ही थे द्वार, वन-उपवन बारह सजे ||

शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज-स्नान-कुञ्ज |
झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||

चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |
केसर-कदम-तमाल, नाग्केसरी-वन विचित्र ||

लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
  वृन्दावन नेवार, उपवन जूही माधवी || 

घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करें देवता ईर्ष्या ||

रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
बैठ लगा के घात, कैसे रोके शत्रु-जन्म ||

मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||

चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||

धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्य-पूर्वज ताड़ते ||

महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||  

रावण के षड्यंत्र, यदा-कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||

गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्यदेव के तेज से | 
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||

रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी  |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||

जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
 निकट अवध संभाग, खर-दूषण को सौंप दे || 

खर-दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||

त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की || 

कुत्सित नजर गढ़ाय, राज्य अवध को ताकते |
 खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||

गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर ||

जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||

भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||



 असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||

धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||

कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता ||

समझ गई हालात, बंद पेटिका सुमिर कर |
ढीला करके गात, जगह देखकर कूदती ||

लुढ़क गई कुछ दूर, झाडी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||

मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, झाड़ी में सौभाग्य से ||

लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||

खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||

रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||

रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||

दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||

9 comments:

  1. क्या बात है!!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 25-06-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-921 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  2. बहुत सुन्दर रविकर जी , लगता है जल्द ही भगवान राम पर एक नया महाकाव्य पढने को मिलने वाला है :) आभार

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  3. Bahut khub .........
    Sundar likha hai sir ji ......

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  4. आपकी शोध और मेहनत अभिनंदनीय है....
    सादर बधाई स्वीकारें।

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  5. वाह ... छंद मय काव्य की सरिता ...

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  6. कथात्मक बढ़िया प्रस्तुति .बधाई .

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  7. दृश्य और काल के संदर्भ में शब्द चयन बेजोड़.

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  8. बहुत बढ़िया प्रस्तुति है भाई साहब .छायानाकन और कवित्त दोनों ही राग रंग से भरपूर .वीरुभाई परदेसिया .

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  9. आपके अथक परिश्रम के कारण ही यह पूर्व रामायण हम अज्ञानियों तक पहुंच रहा है । बहुत आभार ।

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