24 November, 2012

रोके छुरी कटार, व्यंग वाणों को रविकर




कविता कर-कर के करे, कवि-कुल आत्मोत्थान ।
जैसे योगी तन्मयी, करे ईश का ध्यान ।

करे ईश का ध्यान, शान में पढ़े कसीदे ।
भावों में ले ढाल, ढाल से सौ उम्मीदें  ।

रोके छुरी कटार, व्यंग वाणों को रविकर ।
कायम रखे इमान, हमेशा कविता कर कर ।।


4 comments:


  1. @ कवि का ईमान कविता करने से ही सुरक्षित है। पूरा सचनहीं। अधूरी बात है। उसमें समुचित व्यंग्य हो, तीखापन हो, सारगर्भित प्रशंसा भी हो, तार्किक आलोचना भी हो, प्रभु का ध्यान करते हुए उसकी स्तुति भी हो। जो कि आप बाखूबी करते भी हैं। वाक् पटुता के साथ आपकी वाक् कटुता की धार से भी परिचित हूँ इतनी पैनी होती है कि बच पाना बहुत मुश्किल।

    एक बात याद कराना चाहूँगा :


    जब महर्षि परशुराम ने क्षत्रियों को धर्मच्युत पाया तब उनकी समूल सत्ता नष्ट करने का विचार किया। किन्तु फिर भी कुछ को इस दायरे से बाहर रख दिया।

    जनक को योगी पुरुष जानकर, दशरथ को नपुंसक जानकर, दशानन रावण को ब्राह्मण कुल से क्षत्रिय कुल में आने के कारण और उसके वेद पांडित्य के कारण से उनकी सत्ता उखाड़ फैंकने से वंचित रखा। वैसे भी रावण उनके लोकतांत्रिक व्यवस्था से बाहर की शक्ति था।

    रविकर जी, आपको इस प्रकरण को सुनाने का औचित्य इतना ही है ... कि आपकी काव्य-प्रतिभा भी किसी आधार पर कुछ को अपने व्यंग्य बाणों से छूट दे। :)

    आपके हाथ परशु न सही 'वाचिक कटार' तो है ही। :)

    ReplyDelete
  2. रोके छुरी कटार, व्यंग वाणों को रविकर ।

    कायम रखे ईमान , हमेशा कविता कर कर ।।

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति बढ़िया शब्द प्रयोग जैसे योगी तन्मयी,

    योगमयी की ताल पे तन्मयी वाह क्या कहने हैं भाई साहब .

    ReplyDelete
  3. प्रिय रविकर जी बहुत सुन्दर ..जैसा प्रतुल जी ने कहा है कविता में सच वर्णन होता रहे तीखा मीठा जो भी हो तो आनंद और आये ये बात आप की सच है जब हम दुसरे पर एक अंगुली उठाते हैं तो तीन हमारी तरफ खुद उठती है और हमे एक भय से खुद को इमान धर्म प्रेम प्यार की रीति में बांधे रखना होता है ...
    जय श्री राधे
    भ्रमर ५

    ReplyDelete