16 January, 2013

तन्हाई यह खाय, याद के मेघ घनेरे-


मनमौजी मम मनचली, मनमथ मथ मन जाय ।
मनसायन में मात्र मैं, मन-मोहिनी लुकाय ।

मन-मोहिनी लुकाय, आय नहिं सम्मुख मेरे ।
तन्हाई यह खाय,  याद के मेघ घनेरे ।

आजा हो बरसात, कलेजा बने कलौंजी ।
खाओ लेकर स्वाद, देह रविकर मनमौजी ।।
मनमथ = कामदेव 
लुकाय = छुप जाय 
मनसायन = प्रेमियों के बैठने का स्थान 
कलौंजी = परवल / करेला को चीरकर मसाला भरकर  
               तैयार की गई तरकारी ।
 
चखना है श्रृंगार रस, हो जाता वीभत्स ।
कहते गुरुवर यह नहीं, तेरे बस का वत्स ।
तेरे बस का वत्स, बैठ जा मार कुंडली ।
 गली गली में भटक, ढूँढ़ता नाहक अगली ।
आजा रविकर पास, ध्यान नुक्कड़ का रखना ।
 है अंग्रेजी-शॉप, साथ ले आना चखना ।।

 व्यापारी है मीडिया, सदा देखता स्वार्थ ।
विज्ञापन मछली बड़ी, आँख देखता पार्थ ।
आँख देखता पार्थ, अर्थ में दीवाना है ।
रहे बेंचता दर्द, मर्ज से अनजाना है ।
 नकारात्मक खबर, बने हर समय सुर्खियाँ । 
 सकारात्मक त्याज्य, लगे खुब जोर मिर्चियाँ ।।

7 comments:

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति कुंडली दार प्रासंगिक सन्दर्भों की .

    ReplyDelete
  2. खुबसूरत अभिवयक्ति.....

    ReplyDelete
  3. प्रभावशाली ,
    जारी रहें।

    शुभकामना !!!

    आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़)
    आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।

    ReplyDelete
  4. उत्कृष्ट प्रस्तुति .आभार आपकी सद्य टिप्पणियों का .हमें चर्चा मंच पे बिठाने का .

    ReplyDelete
  5. काम बढ़ाए शीत यह,ध्यानी होता रंज
    ऊर्ध्वाधर ऊर्जा जगे,मनसायन में रंग!

    ReplyDelete
  6. शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .मार्मिक प्रासंगिक .

    ReplyDelete